Wednesday, June 19, 2013

नहीं मि‍लती बीर-बहुटि‍यां......


नीम की नुकीली 
पत्‍ति‍यों पर
ठहरी बूंदे
सहज ही गि‍र पड़ीं

नीम ने चाहा था
जरा सी देर
उसे
और ठहराना

मैंने चाहा था
जमीं के बजाय
हथेलि‍यों में
उसे संभालना

जो चाहता है मन
वो कब होता है
कहो तुम ही

हरदम चाहा तुमने
वीर-बहुटी बना
दोनों हथेलि‍यों के बीच
मुझे सहेजना

और मैं
बूंदों की तरह
फि‍सल जाती हूं
अनायास

देखो
अब बरसात में
नहीं मि‍लती
बीर-बहुटि‍यां

बूंदों का आचमन कर
तृप्‍त हो जाओ
कि अब तो
नीम ने भी हार मान ली.......


तस्‍वीर--साभार गूगल 

12 comments:

Kailash Sharma said...

जो चाहता है मन
वो कब होता है
कहो तुम ही

...बहुत सुन्दर और प्रभावी रचना...

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
धन्यवाद

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

मन के मुताबिक़ हर चीज पाना संभव नही,,,

बहुत उम्दा अभिव्यक्ति,,,

RECENT POST : तड़प,

Anupama Tripathi said...

बहुत सुंदर ...

प्रतिभा सक्सेना said...

'कहो तुम ही
जो चाहता है मन
वो कब होता है'
-
समझौता करना ही पड़ता है!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुंदर भाव ...

पूरण खण्डेलवाल said...

बहुत सुन्दर रचना !!

Durga prasad mathur said...

प्रत्येक पंक्ति में मन की चाहत छिपी है, और कविता के अन्त में प्रत्येक चाहत को अंजाम छिपा है ,
सच के साथ लिखी गई रचना पर आपको बधाई !
chitranshsoul

कालीपद "प्रसाद" said...


जिंदगी का दूसरा नाम है समझौता
latest post परिणय की ४0 वीं वर्षगाँठ !

अरुणा said...

बूंदों का आचमन कर
तृप्‍त हो जाओ
कि अब तो
नीम ने भी हार मान ली.

बहुत सुन्दर ....

Darshan jangra said...

बहुत सुन्दर रचना

Darshan jangra said...

बहुत सुंदर .