Friday, June 21, 2013

अलकनंदा तोड़ गई तटबंध....


एक दुख
उन सारे दुखों को
अपने पास खींच लाता है
जि‍से मन ने
कि‍सी कोने में छिपा रखा था

कई बार
मैं सुनना नहीं चाहती
वो बातें
जो तुम्‍हारी आवाज के अंदर
छुपी सिहरन
बोलती है

* * *
फि‍र आई आवाज
कांपती-थरथराती सी
बि‍ट़टू....
अलकनंदा तोड़ गई तटबंध
कांप गई मैं
धरती की तरह

सीमाएं तोड़ जाना
जि‍नकी आदत नहीं
बंध टूटने पर वो
हाहाकार मचा देती है
प्रलय ला देती है

मत बांधों कि‍सी नदी को
मत दो आमंत्रण वेग को
प्रकृति खुद को नि‍यंत्रि‍त करना
जानती है
ठीक एक स्‍त्री की तरह......


तस्‍वीर--साभार गूगल 

11 comments:

प्रतिभा सक्सेना said...


सीमाएं तोड़ जाना
जि‍नकी आदत नहीं
बंध टूटने पर वो
हाहाकार मचा देती है
प्रलय ला देती है
-- बहुत सही कह रही हैं आप -प्रकृति और नारी एक दूसरी के पर्याय ही तो हैं!

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन इस दुर्दशा के जिम्मेदार हम खुद है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Yashwant R. B. Mathur said...

आपने लिखा....हमने पढ़ा
और लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 23/06/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!

अरुन अनन्त said...

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (23-06-2013) के चर्चा मंच -1285 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

देवेन्द्र पाण्डेय said...

मत बांधों कि‍सी नदी को
मत दो आमंत्रण वेग को
प्रकृति खुद को नि‍यंत्रि‍त करना
जानती है
ठीक एक स्‍त्री की तरह.....

..सार्थक संदेश।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जितना ज्यादा बंधन उतनी ही प्रलय की तीव्रता ...

Amrita Tanmay said...

सही कहा है..

ashokkhachar56@gmail.com said...

सुंदर और बढ़िया

कविता रावत said...

कई बारमैं सुनना नहीं चाहती
वो बातें
जो तुम्‍हारी आवाज के अंदर
छुपी सिहरन
बोलती है
..सच दुःख की कोई परिधि नहीं ...

Madan Mohan Saxena said...

सुन्दर भावो की अभिवयक्ति .

Anonymous said...

सुंदर और बढ़िया