Thursday, May 30, 2013

ये जहर मेरे लहू में उतर गया कैसे.....

उदासी की आठवीं किस्‍त
* * * * 


'मैं होश में था...... तो उस पे मर गया कैसे....ये जहर मेरे लहू में उतर गया कैसे.......'

भर रात मेहदी हसन की दर्द भरी आवाज गूंजती रही फि‍जा में....जाने गजल सुनने से कसक बढ़ रही थी या कसक थी सीने में ...इसलि‍ए गजल सुना मैंने....सारी रात....

मेहदी साहब की आवाज हौसला देती है.....रात भर इन पंक्‍ति‍यों ने न सोने दि‍या....न रोने दि‍या। तड़पते रहे सारी रात.....ऐसे, जैसे जल बि‍न मछली....

मैं तो ऐसी नदी थी जि‍सके तल में बि‍छे बालू भी तुम अपनी आंखों से देख सकते थे.....एकदम पारदर्शी....स्‍वच्‍छ.....इसमें बस भावनाओं के हल्‍के हि‍लोरें आते थे......वो भी तुम्‍हारी खाति‍र...जाना ही था तो इसे भी गंदला कर जाते.....ताकि कोई झांक न सके अंर्तमन में... अब अपनी इस फि‍तरत को लेकर कहां जाएं...

एक सवाल सुलगता रहा सीने में....उनसे ही इतना प्‍यार क्‍यों होता है....जि‍न्‍हें हमारी कद्र ही नहीं। आंखों में रात काटना अब तो आदत सी बन गई है।

मगर तुम तो सपनों की बातें करते थे.....कहते थे...तुम्‍हारी जागी आंखों में नींद भर दूंगा इतनी...कि भोर को पलकें ही न खुले.....फि‍र मैं उनमें अपने सपने बो दूंगा......मगर ख्‍याल रहे....सपने में भी कि‍सी गैर को न लाना कभी तुम......

आज....वही हो तुम न....अकेला छोड़ कर मुझे जाने कहां चले गए..मैंने तो घना दरख्‍त समझा था तुम्‍हें...जि‍सकी छांव में तमाम उम्र कट जाएगी...खुशी से... अब न छांव है न दरख्‍त...बस कड़ी धूप

आखि‍र यूं दूर कोई जाता ही क्‍यों है....क्‍या इन आंखों में वो कशि‍श नहीं जो बांध पाए तुम्‍हें.....जान...मैंने तो सि‍वा इसके कुछ न चाहा था कि तुम अंति‍म सांस तक मेरे रहो....मेरे पास रहो...

इतने दि‍न गुजर गए....एक धड़का सा लगा रहता है हर वक्‍त...जाने वाले...तू लौटेगा भी कि नहीं.....क्‍या मैं यूं ही राह नि‍हारती रहूं.....आवाज लगाती रहूं....
इंतजार में जलती इन नि‍गाहों को क्‍या कभी ठंढक नसीब नहीं होगी। जाना ही था तो कह कर जाते......न आउंगा वापस.....इंतजार जब नसीब में है तो कर ही लेती.....यूं हर दि‍न सुबह एक आस जगती है और शाम ढलते टूट जाती है.....
टूटकर बि‍खर जाना अच्‍छा होता है एक बार ही.....

यूं हर दि‍न दरकती हूं.....टूटने की चाह पनपती है....मगर आस टूटती भी नहीं......

क्‍या यही मेरी बेपनाह मोहब्‍बत का सि‍ला है...........


तस्‍वीर--कारो नदी का स्‍वच्‍छ पानी और मेरे कैमरे की नजर 

4 comments:

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...

@मेरी बेटी शाम्भवी का कविता-पाठ

सदा said...

.यूं हर दि‍न सुबह एक आस जगती है और शाम ढलते टूट जाती है.....
टूटकर बि‍खर जाना अच्‍छा होता है एक बार ही.....सच
अच्‍छी लगी यह प्रस्‍तुति

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर
बढिया

iKKyu Kensho Tzu said...

आपको पढ़ कर सोचने लगा, "मुझ से पहले भी मोहब्बत का यही अंजाम था, कैस नाशाद था, हीर नाकाम था" दिल भारी हो गया पढ़ कर, यूं लगा जैसे शब्द आपके हों और भाव हमारे !