Tuesday, May 14, 2013

प्रि‍यतम का गुंजलक....


बरसती चांदनी की
पंखुरि‍यों में
प्रि‍यतम का गुंजलक
मोगरे की खुश्‍बू से 
मन का उपवन
महका जाता है ।

सांसों की
गरमाई से
सि‍क्‍त रखो मेरी सांसे
गेसुओं से उलझकर
कचनार बादल
इन दि‍नों
रस्‍ता भूल जाता है।

जागती रातों का
छोड़ दि‍या मैंने
रखना हि‍साब
उचटी नींदों को
अपने होंठों से
जब से कोई पी जाता है।


तस्‍वीर--साभार गूगल

5 comments:

रचना दीक्षित said...

जागती रातों का
छोड़ दि‍या मैंने
रखना हि‍साब
उचटी नींदों को
अपने होंठों से
जब से कोई पी जाता है।

अत्यंत संवेदनशील और भावनात्मक प्रस्तुति.

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
धन्यवाद

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

उचटी नींदों को होंठो से जब से कोई पी जाता है। क्‍या उपमा है। सुन्‍दर।

कालीपद "प्रसाद" said...

उचटी नींदों को
अपने होंठों से
जब से कोई पी जाता है।..... सुन्‍दर! सुन्‍दर!! सुन्‍दर!!!

अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूब ...