Monday, October 1, 2012

बुढ़ापे का दर्द ....(आज वि‍श्‍व वृद़ध जन दि‍वस पर)

तमाम जवानी
अपनी बुलेट फटफटाते
जब वो शहर से गुजरते थे
राह में चलने वाले
इज्‍जत से देते थे रास्‍ता
और हर अपराधी
मांगता था पनाह
घर वाले भी
बड़े अदब से आगे-पीछे घूमते थे
जब वो
दि‍खाते थे अपना पुलि‍सि‍या रोब...
मगर जब
रि‍टायर हुए
सारी ठसक हवा हुई
अब सब्‍जी का झोला
हाथ में टांगकर
मोलभाव करते नजर आते हैं
घर में भी कि‍सी के पास
वक्‍त नहीं उनके खाति‍र
सारा दि‍न
टि‍न-डब्‍बे लेकर
ठोंकते-पीटते है
बनाते हैं फि‍र बि‍गाड़ते हैं
बस
खाने के वक्‍त बड़ी मुस्‍तैदी से
मेज पर बैठ जाते हैं
जैसे एकमात्र कार्य
बचा हो उनके खाति‍र...
और सारा दि‍न
ओसारे में कबाड़ के साथ
अपनी बची हुई सांसों को
जीने की रस्‍म नि‍भाते हैं..
क्‍या बुढ़ापा इतना बुरा होता है
कि‍ सारे अपने पराये बन जाते हैं
हमारी जिंदगी में भी आएगा वो दि‍न
हम सब ये बात क्‍यों भूल जाते हैं ?????

10 comments:

Rajesh Kumari said...

आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल २/१०/१२ मंगलवार को चर्चा मंच पर चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आप का स्वागत है

Aditi Poonam said...

ऐसा क्यों होता है पता नहीं ,एक अव्यक्त दर्द को रेखांकित करती रचना

रविकर said...

समय होत बलवान |

रविकर said...

मार्मिक ||

virendra sharma said...


हमारे वक्त को खंगालती बेहद सशक्त रचना .

सुशील कुमार जोशी said...

आम तौर पर
जवानी में जो
रास्ते हम
दूसरों को
दिखाते हैं
अपने लिये
बनाते हैं
बुढा़पे मे वोही
रास्ते चलने
के लिये
हमारे सामने
आते हैं !

शारदा अरोरा said...

bas kahne layak kuchh nahi bachta...
मुखड़े जो थे अरमान भरे
रँगों के निशाँ हैं खोते हुए
http://shardaarora.blogspot.in/2011/06/blog-post_21.html

अशोक सलूजा said...

बुढ़ापे का दर्द जाने कौन ...
जिसने सहा !बाकि मौन !

शुभकामनायें!

Udan Tashtari said...

सार्थक रचना!!

Rahul Paliwal said...

very touchy! keep writing!