Monday, May 28, 2012

वैष्‍णो देवी यात्रा.....एक संस्‍मरण

1) सफर का आनंद

माता के दरबार जाने की इच्‍छा पि‍छले कई महीनों से मन में थी। सोचा,‍ इस बार बच्‍चों की गर्मी की छ़ुट़टि‍यां जैसे ही शुरू होंगी, नि‍कल पड़ेंगे। सो सीटें आरक्षि‍त करवा कर हम नि‍श्‍चिंत हो गए क्‍योंकि‍ छुट़टि‍यों में काफी गहमागहमी होती है ट्रेन में। यात्रा में हमारे परि‍वार के साथ मेरे माता-पि‍ता भी थे। मतलब मेरे पति, दोनों बेटे,मेरे माता-पि‍ता और मैं....कुल छह लोग। 11 मई को हमें जम्‍मूतवी से जाना था और वापसी 17 मई को राजधानी से थी।
बच्‍चों में यात्रा को ले बड़ा उत्‍साह व रोमांच था। पूरे पैकिंग के दौरान ये ले चलूं....वो ले चलूं कि‍ गुहार लगती रही। बड़ा बेटा अमि‍त्‍युश चेस ले जाने के चक्‍कर में था तो छोटे ने अपनी कक्षा की कि‍ताब ली कि‍ रास्‍ते में पोएम याद करूंगा। इंतजार करते-करते आखि‍र 11 मई का दि‍न आ ही गया। हमने नि‍र्णय लि‍या कि‍ ट्रेन रांची से न पकड़कर रामगढ़ से ली जाए क्‍योंकि‍ यहां से ट्रेन 3:25 में खुलती है और रामगढ़ शाम 6:40 में पहुंचती है। लगभग तीन घंटे लगते हैं पहुंचने में और सड़क मार्ग से 1 घंटा। उस पर, रास्‍ते से अपने माता-पि‍ता को भी लेना था। सो....हमने तय कि‍या कि‍ दो घंटे की बचत की जाए। माता-पि‍ता को लेकर हम रामगढ़ करीब 06:15 में पहुंचे।
मुझे स्‍टेशन पहुंचकर बहुत अच्‍छा लगा क्‍योंकि‍ मैंने अपनी जिंदगी की पहली रेलयात्रा यहीं से शुरू की थी, जब पहली बार अपने पापा के साथ दि‍ल्‍ली गई थी। तब मैं करीब 10 वर्ष की थी। इसलि‍ए मुझे बड़ा आनंद आया और बच्‍चे तो उत्‍साह से लबरेज इधर-उधर दौड़ लगा रहे थे। निर्धारि‍त समय पर ट्रेन आई। स्‍टेशन पर भाई-भाभी और कुछ परि‍जन छोड़ने आए थे। उनसे वि‍दा लेकर हमने यात्रा की शुरूआत की।
अपनी सीट ढूंढी तो पता चला कि‍ पांच में से 3 बर्थ तो साइड वाले हैं। कि‍नारे वाली सीट में परेशानी होती है। उपर से सारा परि‍वार एकसाथ नहीं बैठ पाता। चौथा बर्थ उपर था और एक बर्थ दो कूपे के बाद।। सब इधर-उधर। बच्‍चे दूर जाना नहीं चाहते थे। मां-पापा को भी अकेले वहां बि‍ठाना अच्‍छा नहीं लग रहा था। उपर से तीसरे कूपे वाले सज्‍जन आकर वि‍नती करने लगे कि‍ हमें वो बर्थ दे दें और उनसे सीट बदल लें। हमने भी बात मान ली क्‍योंकि‍ वो वहां दो सीटें दे रहे थे। खैर.....शाम रात में बदल चुकी थी। बाहर कुछ नजर नहीं आ रहा था और मेरा छोटा बेटा अभि‍रुप 'नजारा देखना है'.....'नजारा देखना है' कह कर बार-बार गेट की ओर चला जा रहा था। बड़ी मुश्‍कि‍ल से संभाला उसे। ढाई दि‍न की यात्रा थी इसलि‍ए रात का खाना घर से ही लेकर हम चले थे। आलू व सत्‍तू परांठा, कुछ चपाति‍यां और पनीर की सब्‍जी एवं भिंडी का भुजि‍या। जब भूख लगी हो और घर का खाना साथ हो, तो मेरे ख्‍याल से ज्‍यादा लजीज लगता है।
रात के दस बजते-बजते सारे लोग सो गए। बस हमारे कूपे में हमलोग ही गप्‍पें मारने में मशगूल थे। सबसे पहले बड़े बेटे अमि‍त्‍युश ने चंपक के साथ बि‍स्‍तर पकड़ी। उसके बाद सभी उठ गये। पापा, बड़ा बेटा और पति ये तीनों साइड वाले बर्थ में और मैं अपनी मां और छोटे बेटे अभि‍रुप के साथ चौथे कूपे में। घुटने की तकलीफ के कारण मां नीचे के बर्थ पर और र्मैं अभि‍ के साथ उपर.....साथ में क्षमा शर्मा की कि‍ताब और पानी की एक बोतल।
कि‍ताब खोला ही था कि‍ बेटे ने सवाल शुरू कर दि‍ए.....कब पहुंचेगें....कि‍तनी देर लगेगी। रात कि‍तनी हुई है। उपर से गि‍र तो नहीं जाउंगा। बस......सवालों के जवाब देती रही। काफी देर बाद जब वो सोया तो मेरी भी पढ़ने की इच्‍छा नहीं हुई। सोचती रही कि‍ इस पुराने जमाने के ट्रेन को अब बदल देना चाहि‍ए। बर्थ थोड़ा आरामदायक हो तो यात्रा का भी आनंद आए।
रात गहराती जा रही थी। इसके बाद मुझे नींद आई तो सुबह के छह बज रहे थे। चारों ओर हलचल थी। सोचा.....सुबह उठकर क्‍या करना है। चलो फि‍र से से जाओ। आधी सोई-आधी जागी, दुबारा उठी तो आठ बज चुके थे। बाथरूम के लि‍ए गई तो पता चला पानी खत्‍म हो चुका है। आगे वाले कूपे में जाना पड़ा।
कानपुर स्‍टेशन पर जब सवारि‍यों की हलचल हुई तो टाइम देखा। 12:20 में पहुंचने वाली ट्रेन 2:10 में पहुंची थी। मतलब ट्रेन दो घंटे लेट थी। यहां आकर पता लगा कि‍ हमसे जि‍सने बर्थ बदली थी.....वो उनकी अपनी नहीं थी। उन्‍होंने उसे भी कि‍सी से बदली थी और वो कानपुर ही उतर गए। मतलब हम जि‍स बर्थ पर कल रात थे वह आज अपनी नहीं थी। हमें बड़ा गुस्‍सा आया। वो सज्‍जन फि‍र आए सीट बदलवाने। हमने साफ कह दि‍या कि....अब आप अपना देख लो। हमारी जो बर्थ है....उसी पर रहेंगे हम।
मैनें एक बड़ी अजीब सी बात नोटि‍स की। एसी टू टायर में नीचेवाली बर्थ जि‍सकी होती है.........सारा दि‍न वो उस पर लेटा रहता है। जि‍सकी उपर की बर्थ है....वो उपर जाए या प्रार्थना करे कि.....भईया हमें भी बैठने दे। जबि‍क पहले लोग एक साथ बैठते थे और सोने के वक्‍त पर ही अपनी सीट पर जाते थे।
बीच में दूसरे टीटी साहब भी चढ़े। फोन रखकर भुनभुनाने लगे.....रेल मंत्री के आदमी को जगह चाहि‍ए। पूरी ट्रेन खचाखच भरी है। कहां से जगह दूं। फोन पर फोन। कि‍सी ने कहा....बैठने भर की जगह दि‍ला दो। वो भन्‍नाए.....कहां से दूं। लोग तो एसी में पूरा पैसा वसूलने आते हैं। सारा दि‍न सोए रहेंगे। ये नहीं कि‍ कि‍सी को बैठने की भी जगह दे दो थोड़ी। और वाकई ये हकीकत थी।
शाम हुई तो मैंने मां से कहा-जाकर अपने बर्थ पर आराम करो। वो चली गई। जब घंटे भर बाद मैं उन्‍हें बुलाने गई तो उन्‍हें असहज पाया। देखा बगल वाले बर्थ पर कंबल के नीचे एक जोड़ा लेटा हुआ लैपटाप पर कुछ देख रहे थे। मां को अच्‍छा नहीं लग रहा था। मैंने उनकी सीट बदल दी।
सुबह कि‍सी स्‍टेशन पर गाड़ी रूकी तो चने-भटूरे का नाश्‍ता कि‍या क्‍योंकि‍ रेल का खाना बड़ा बेस्‍वाद था। सफर से अब थकान हो चली थी और बोरि‍यत भी। फि‍र जहां हमें दोपहर 1:30 के लगभग जम्‍मू पहुंचना था, हम पहुंचे शाम पांच बजे के आसपास। पहुंचने की खुशी थी इसलि‍ए हमने तुरंत वहां से टैक्‍सी ली और कटरा की ओर नि‍कल पड़े। रास्‍ते में कई मनभावन द़श्‍य मि‍ले। नीला..खुला आसमान..हरे-हरे आंखों को सुहाते पेड़-पौधे। पूरे रास्‍ते सड़क कि‍नारे बंदर ही बंदर बैठे मि‍ले। कोई बच्‍चे को अपने से चि‍पकाए, कोई शरीर खुजाता तो काई गाड़ी की ओर कुछ पाने की हसरत से देखता.....बच्‍चों को बड़ा आनंद आया। इस तरह मां के दर्शन की अभि‍लाषा लि‍ए हम हंसते-बति‍याते दो घंटे में जम्‍मू से कटरा पहंच गए।

शेष............

4 comments:

मुकेश पाण्डेय चन्दन said...

sundar prastuti !
bhagwat ko sadar shrandhanjali !

मुकेश पाण्डेय चन्दन said...

sundar prastuti !

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

वैष्‍णो देवी यात्रा का रोचक संस्‍मरण,,,,,,,

सुंदर प्रस्तुति,,,,,

RECENT POST ,,,,, काव्यान्जलि ,,,,, ऐ हवा महक ले आ,,,,,

Unknown said...

Nicely written article.
Please visit my blog Unwarat.com& read my new article--Janamashatmi in London Bhagti Vedant manor watford london.
Aabhaar,
Vinnie