बस....एक अंतिम गांठ और
उसके बाद
अपने दुपट़टे को
बांध दूंगी
उस पक्की सड़क के किनारे वाले
बरगद की सबसे उंची शाख पर
परचम की तरह...
जहां से
उम्र गुजर जाने तक
एक न एक बार
तुम गुजरोगे ही
इस ख्याल से
इस याद से
कि जाने वाले की
एक निशानी तो देख आउं....
तब
उतार लेना उस शाख से
मेरा दुपट़टा
और
एक-एक कर खोलना
उसकी सभी गांठे...
देखना.....
सबसे पुरानी गांठ से
निकलेगी
मेरे पहले प्यार की खुश्बू
जो
जतन से बांधा था
पहली बार
तुम्हारी याद में...
फिर दूसरी....तीसरी...चौथी
और हर वो गांठ
जिसमें मेरे उम्र भर के आंसू हैं
और लिपटी हुई तुम्हारी याद
हां....
एक भीगा-भीगा गांठ अलग सा होगा
जिसमें
बांध रखा है मैंने
तुम्हारा भेजा
वह चुंबन भी..
जो बारिश की बूंदों की तरह
लरजता रहा
ताउम्र मेरे होठों पर
और.......
अंतिम गांठ है
तेरे-मेरे नाम की
साथ-साथ
कि कभी तो
आओगे तुम..
और जब दुपट़टे की गांठ
खोलोगे
क्या पता तब तक....
तुम मेरा नाम भी भुला चुके होगे
तो ये नाम याद दिलाएगा
कि कभी हममें भी कुछ था......।
10 अप्रैल 2013 को दैनिक भास्कर रांची के साहित्य पन्ने और 11 अप्रैल 2013 को दिल्ली से प्रकाशित लोकसत्य में छपी कविता .
उसके बाद
अपने दुपट़टे को
बांध दूंगी
उस पक्की सड़क के किनारे वाले
बरगद की सबसे उंची शाख पर
परचम की तरह...
जहां से
उम्र गुजर जाने तक
एक न एक बार
तुम गुजरोगे ही
इस ख्याल से
इस याद से
कि जाने वाले की
एक निशानी तो देख आउं....
तब
उतार लेना उस शाख से
मेरा दुपट़टा
और
एक-एक कर खोलना
उसकी सभी गांठे...
देखना.....
सबसे पुरानी गांठ से
निकलेगी
मेरे पहले प्यार की खुश्बू
जो
जतन से बांधा था
पहली बार
तुम्हारी याद में...
फिर दूसरी....तीसरी...चौथी
और हर वो गांठ
जिसमें मेरे उम्र भर के आंसू हैं
और लिपटी हुई तुम्हारी याद
हां....
एक भीगा-भीगा गांठ अलग सा होगा
जिसमें
बांध रखा है मैंने
तुम्हारा भेजा
वह चुंबन भी..
जो बारिश की बूंदों की तरह
लरजता रहा
ताउम्र मेरे होठों पर
और.......
अंतिम गांठ है
तेरे-मेरे नाम की
साथ-साथ
कि कभी तो
आओगे तुम..
और जब दुपट़टे की गांठ
खोलोगे
क्या पता तब तक....
तुम मेरा नाम भी भुला चुके होगे
तो ये नाम याद दिलाएगा
कि कभी हममें भी कुछ था......।
10 अप्रैल 2013 को दैनिक भास्कर रांची के साहित्य पन्ने और 11 अप्रैल 2013 को दिल्ली से प्रकाशित लोकसत्य में छपी कविता .
11 comments:
बहुत सुन्दर..!
और आगे भी-
जोड़-गाँठ में अति निपुण, मन की गांठें खोल |
गाँठ स्वयं तू खोल नत, खोले दुनिया पोल |
खोले दुनिया पोल, गाँठ का पूरा बन्दा |
कर देगा मुंह बंद, खिलाकर सबको चन्दा |
पर चन्दा बदनाम, होय इस सांठ-गाँठ में |
मत होने दे शाम, फंसो ना जोड़-गाँठ में ||
सादर -
prem ke saare ahsaas uker diye...waah
क्या पता तब तक....
तुम मेरा नाम भी भुला चुके होगे
तो ये नाम याद दिलाएगा
कि कभी हममें भी कुछ था......।
बहुत सुंदर सार्थक अभिव्यक्ति // बेहतरीन रचना //
MY RECENT POST ....काव्यान्जलि ....:ऐसे रात गुजारी हमने.....
उतार लेना उस शाख से
मेरा दुपट़टा
और
एक-एक कर खोलना
उसकी सभी गांठे...
देखना.....
सबसे पुरानी गांठ से
निकलेगी
मेरे पहले प्यार की खुश्बू
भाव विभोर कर देने वाली रचना ....!
पहला प्यार,पहली बार,पहला अहसास कौन भूल सकता ......
और वह अंतिम गाँठ तो .. दे गयी एक निशानी
याद दिला गयी रूमानी दुष्यंत शकुंतला की कहानी
bahut sundar kavita ke liye badhaee
अदभुद, सचमुच आपके दर्द ने तार-तार कर दिया....
सुंदर अभिव्यक्ती ...
बहुत अच्छी रचनायें। यात्रा संस्मरण भी पढ़े, हिमालय दिव्य भूमि का शीर्ष है ...सदा आकर्षक।
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