भक्ति में लीन
भाग-2 />
Wednesday, May 30, 2012
वैष्णो देवी यात्रा.......एक संस्मरण
हम थक चुके थे...सो निश्चय किया कि अब सुबह देखा जाएगा। सुबह पर्ची कटवाने के चक्कर में काफी देर हो गई। तब एक परिचित के द्वारा पास का इंतजाम किया और यात्रा शुरू की। दोपहर एक बजे के आसपास हमलोग बाणगंगा पहुंचे। मां को आर्थराइिटस की बीमारी है....सो पैदल चढ़ नहीं सकती....इसलिए खच्चर की ढुंढाई शुरू हुई। मगर उस दिन लोगों के भाव बढे हुए थे। बड़ी मुश्किल से बात तय हुई और उन्हें और बेटे को खच्चर पर बिठाया। अमित्युश बैठने को तैयार ही नहीं था। घोड़े के समान बिदकने लगा कि नहीं बैठूंगा इस पर। बड़ी मुश्किल से समझाया। अब दोनों जिद करने लगे कि हम पहले आगे जाकर क्या करेंगे ? कहां बैठेगें.....सो सबलोग खच्चर पर ही चलो। आखिरकार उनकी बात माननी पड़ी और खच्च्रों पर बैठकर चढाई शुरू की हमने। मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। मगर मेरी मां और बेटे दोनों की जिद के आगे झुकना पड़ा।
हम थोड़ा आगे बढ़े तो प्राकृतिक नजारों ने मन मोह लिया। उंचे-उंचे पहाड़, हरे-हरे पौधे और नीचे बलखाती सड़के। उंचाई से सब बहुत ही सुंदर लगने लगा। मगर थोड़ी धूप थी, इसलिए आनंद उठाने से ज्यादा पहुंचने की जल्दी थी। जल्दी ही हम अर्धक्वांरी में रूके। बहुत सारे यात्री थे जो सुस्ताने के लिए बैठे थे। यहां से दो रास्ते बंटते हैं। एक पुराना वाला...जिसकी थोड़ी कठिन चढ़ाई है और दूसरा नया वाला, तुलनात्मक रूप से आसान और दूरी भी एक किलोमीटर कम। हमने निर्णय लिया कि अब पैदल ही चला जाए ताकि चढ़ाई का आनंद मिले साथ ही प्रकृति के भी करीब रहे हम। अर्धक्वांरी में दर्शन की कोई गुंजाइश नजर नहीं आयी। भीड़ इतनी थी कि हमलोगों को एक दिन पूरा रूकना पड़ता। यहां रूकने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ।सीधे मां के भवन जाने की बात हुई।
अब शाम हो चली थी। धूप में वैसी गर्मी बाकी नहीं थी। चीड़ के पेड़ से छुपकर आती धूप आंखों को भली लग रही थी। किनारे से नीचे झांकने पर भय हो आए...इतनी गहराई थी , मगर बहुत सुंदर दृश्य था। पूरा शहर नीचे ...बेहद छोटे-छोटे घर नजर आ रहे थे। सर्पीली पगडंडिया नदियों का भ्रम पैदा कर रही थी। पहाड़ों में आधा धूप-आधा छांव....बड़ा मनमोहक सा समां था। पूरी पहाड़ियों पर...रास्ते भर..सफेद-सफेद जंगली फूल खिले थे और उनकी खुश्बू से रास्ता महक रहा था। श्रद्धालु माता के जयकारे लगाते चल रहे थे। लगभग सभी के हाथों में छड़ी थी। शायद आज की लाईफस्टाइल ऐसी हो गई है कि थोड़ा चलते ही लोग हांफने लग रहे थे। सांस फूल रही थी सबकी। इस बार मैंने बहुत सारे लोगों को पालकी पर आते देखा। ज्यादातर बूढ़े लोग व महिलाएं थीं। लगता है सफर की थकान से नीचे उतरने का हौसला खो दिया था उन्होंने। वैसे भी....पहले की तरह का उत्साह देखने को नहीं मिला मुझे। ना मां के जयकारे..ना झूमते-गाते लोग। बस....सबको पहुंचने की जल्दी थी। राह में कई ऐसे वृद्ध मिले...जिन्हें देखकर आर्श्चय होता था कि इस उम्र में भी कैसे चल पा रहे हैं लोग। हां....बच्चों में गजब का उत्साह था। मां-बाप को पीछे छोड़ आगे निकलने की होड़ में सभी लगे थे। थोड़ी-थोड़ी दूर पर जलपान की व्यवस्था थी। हर 500 मीटर पर बैठने के लिए शेड और पीने के पानी का नल लगा था। मुझे तो वहां के पानी का स्वाद इतना मीठा लगा कि क्या बताउं। सारे पैकेटबंद बोतल के पानी वहां के पानी के आगे पानी भरेंगे। मीठा व ठंढा। पूरे पहाड़ के लोग झरने का पानी इस्तेमाल करते हैं। शायद इसलिए स्वस्थ भी रहते हैं।
इस तरह हम धीरे-धीरे उपर चढ़ते गए। शाम ढलने वाली थी। गर्मी भी कम हो गई। दूर क्षितिज में ढलता सूरज अपनी गर्मी खो रहा था। नीला आकाश पहले लाल फिर पीला हो गया था। चीड़ के पेड़ के पीछे से झांकता सूरज इतना मनमोहक लग रहा था कि रूककर देखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही थी। डूबता सूरज धीरे-धीरे अस्तचल की ओर उतरता गया और शाम गहराती गई। लगभग आठ बजे अंधेरा हो गया। उत्सुकुतावश नीचे झांका..........ये क्या....हजारों बत्तियां एक साथ जल रही थी। खूबसूरत इतना कि मत पूछिेये। मेरे दोनों बच्चे मारे खुशी के चिल्लाने लगे। उनके लिए यह बहुत ही खूबसूरत दृश्य था। वाकई....मैदानी इलाकों से जो पहली बार बार पहाड़ों पर जाता है.....और शाम को अंधेरे के बाद जब बत्तियां जलती है....तो एक अद़भुत नजारा सामने आता है....जो बरसों रोमांचित करता है। मैंने भी जब पहली बार कुल्लू में रौशिनयों की कतार देखी थी....पहाड़ पर....आज तक वो आखों के आगे झिलमिलाती है। खैर.....
मंजिल करीब थी। बस दो-तीन किलोमीटर और...फिर हम होंगे मां के चरणों में। एक बार उत्साह उफान पर आया। पूरे जोर-शोर से हमलोग आगे बढ़े। कदमों में तेजी आ गई थी। रात के साथ ही एकदम सुगंध का झोंका आया। पहली बार महसूस हुआ....तो बड़ा अच्छा लगा। थोड़ी दूर और चलने पर फिर वहीं सुंगध.....मन प्रसन्न हो उठा। पता किया....ये तो रातरानी की खुश्बू थी। ओह.....हल्की ठंढ़.... गहराती रात और यात्रियों को मदहोश करती रातरानी की खुश्बू । बेशक....ये खुद ब खुद उग आई थी। इन्हें किसी ने लगाया नहीं था।
मां-मां करते हम करीब नौ बजे भवन के समीप पहुंचे। दूर से ही जगमग करती लाइटें । बच्चे उत्सुकतता से पूछने लगे....मां....हमलोग पहुंच गए। हां में जवाब मिलने पर उनके चेहरे पर शांति दिखी मुझे। शायद बहुत थक चुके थे वो। अभिरुप तो आराम से थे क्यों कि उन्हें पिट़ठू की संगत जो मिल गई थी। पिट़ठू मतलब साथ में सामान या छोटे बच्चों को कांधे पर बिठा कर साथ चलने वाले स्थानीय निवासी। एक बात अच्छी लगी मुझे कि सारे खच्चर वाले और पिट़ठू ज्यादातर मुस्लिम होते हैं। मगर उनमें भी मां को लेकर वैसी ही आस्था थी जैसी हम हिंदूओं में। वे लोग आपस में डोगरी भाषा में बात करते थे। बहुत मेहनती होते हैं ये । लोगों के साथ-साथ चढ़ना और उतरना। कई बार तो दिन में दो फेरे भी लगा लेते थे ये लोग।
उपर ठंढ भी बढ़ने लगी थी। पहुंचकर देखा.....श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ा पड़ा था। दर्शन के लिए माता के भवन से लेकर भैरव बाबा जाने के रास्ते तक लोग पंक्तिबद्ध खड़े थे। चारों ओर जबरदस्त भीड़। खड़े लोग...सोए लोग..बैठे लोग। बस आदमी ही आदमी। पता चला कि रूकने के सारे जगह भर गए है इसलिए श्रद्धालु रास्ते में, शेड में अर्थात जहां जगह मिल जा रहा है....सो रहे हैं। शायद थके लोग सुबह नहा-धो कर दर्शन की आस में होंगे। अभी तुरंत पहुंचने वाले यात्री परेशानी में थे। न दर्शन होने की आस थी न ही सोने कह जगह। पता लगा कि जगह के साथ-साथ सारे कंबल भी खत्म हो गए हैं। जिन्होंने अपने साथ गर्म कपड़े नहीं लिए थे....उनके लिए खुले में रात काटना कष्टप्रद होता। मगर हमारे साथ ऐसी दिक्कत नहीं थी। चूंकि हमने पास का इंतजाम कर लिया था सो सीधे दर्शन के लिए गेट नंबर पांच से घुसे। वहां श्रद्रालुओं में बड़ा जोश मिला। माता के जयकारे पूरे जोर-शोर से लग रहे थे। शांति से पंक्तिबद्ध होकर लोग आगे बढ़ रहे थे। अंतिम चेकिंग के बाद एकदम सामने था मां का द्धार....। हाथ में मां के लिए चुनरी और छत्र लिए हम आगे बढ़े। वहां प्रसाद रूप में सिर्फ यही चढ़ता है। नारियल या कोई अन्य सामग्री बाहर ही रोक ली जाती है जो दर्शन के बाद वापस बाहर मिल जाता है। सिर्फ मां के लिए चुनरी और छत्र स्वीकार िकए जाते हैं। इसलिए हम सिर्फ वही लेकर गए थे। साथ वाले श्रद्धालुओं की आंखे लाल-लाल थीं...जो बता रही थी कि उन्हें जागना पड़ा है बहुत। सारे लोग श्रद्धा में डूबे थे। मेरा छोटा बेटा भी तेज आवाज में जयकारे लगा रहा था। हम एक सुरंग जैसे रास्ते से गुजरे। पहले वह प्राकृतिक गुफा थी जिसे बाद में अब सीमेंटेड किया गया है। वहां छत से तब भी पानी रिसता था....आज भी रिस रहा था। लोग श्रद्धा से वो पानी अपने सिर से लगा रहे थे। एक पंडित तिलक लेकर खड़ा था हर श्रद्धालुओं के माथे पर टीका देने के लिए। बस...........अंतिम क्षण...मां के पिंडी रूप के दर्शन करने को हम बेताब होने लगे। सामने पहुंचे....श्रद्धा से आंखे झुकाईं। मन की बात कही....सबके कुशल-मंगल की प्रार्थना की, बच्चों ने भी प्रणाम किया....क्षण भर को भर आंख देखा और ....मां को छत्र व चुनरी समर्पित कर फिर बाहर...।
बाहर निकलने पर हर भक्त के हाथ पर प्रसाद की पुड़िया। यहां ये नियम नहीं कि पैसे चढ़ाओ तभी प्रसाद मिलेगा। शायद.....कठिन मार्ग ही भक्तों के लिए परीक्षा होती है। अब हम प्रसाद लेकर बाहर निकले तो थोड़ा सुस्ताने के ख्याल से बैठ गए। तब तक रात के बारह बज गये थे। रूकने की कोई सुविधा नहीं थी...इसलिए सबने निर्णय लिया कि रातोंरात नीचे उतरा जाए। अब भैरव मंदिर में जाने लायक ताकत नहीं बची थी। बच्चे नींद से परेशान थे। तब हमलोग रास्ते भर वही रातरानी की मनमोहक खुश्बू से मदहोश होते....घाटियों में घरों से निकलते उजाले से तरह-तरह के बनते चित्र का अनुमान करते...हंसते-बतियाते उतरने लगे। रात के सन्नाटे में बहुत कम यात्री मिले जो सफर में हों। कुछ लोग थे जो शाल-स्वेटर से खुद को ढंके धीमे कदमों से चढते जा रहे थे। उतरते-उतरते पौ फटने लगी। बाणगंगा तक पहुंचते सुबह के पांच बज गए। अब बहुत से दर्शनार्थियों ने यात्रा शुरू कर दी थी...पूरे जोश के साथ। और हमलोग मां के दर्शन का सुख महसूस करते हुए होटल जाकर निद्रा लीन हो गए।
शेष......
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6 comments:
भक्ति में लीन यात्रा की सुंदर प्रस्तुति,,,,,
RECENT POST ,,,,, काव्यान्जलि ,,,,, ऐ हवा महक ले आ,,,,,
बहुत बढिया यात्रा विवरण दिया आपने जय माता की
बहुत सुन्दर मनोहारी प्रस्तुति .. आपके साथ साथ हम हो चले माँ के दरबार में ... अभी हमारा भी प्लान था लेकिन फ़िलहाल पोस्टपोंड हो गया ..अभी शिर्डी से आये हैं ....फिर गाँव जाने का प्लान है ..गर्मियों में कहीं न कहीं की सैर हो ही जाती हैं लेकिन बड़ी दिक्कत होती हैं ..
जय माता दी!
||जय माता दी||
बहुत सुन्दर संस्मरण.... (वहाँ की मनमोहक दृश्यावली और लगाई जानी चाहिए थी तो आनंद दुगुना हो जाता - क्षमा निवेदन सहित)
||जय माता दी||
सादर
रश्मि जी बहुत सुन्दर लगा आपका ये संस्मरण पढ़कर ऐसा लगा आपके साथ हमने भी दर्शन कर लिए पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ और पहली बार ही इतनी भक्तिमय पोस्ट पढ़ी जय माता दी फोलो भी कर लिया है आपको
मुझे अपना यात्रा के भी एक-एक पल का स्मरण हो आया।
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