इतना डूबी हूं
तुममें...
कि अब,
उबरने की न
ताकत बची है
न ख्वाहिश
बस
अब जाना चाहती हूं
वहां....
जहां से
प्यार के सोते फूटते हैं
और न जाने
किस राह निकलकर
मुझ तक पहुंचते हैं
और मैं...
सारा उब-डूब छोड़कर
सम्मोहित हो
पास चली जाती हूं
खो जाती हूं
तुममें...
तुम्हारी सांसों की आवाज में
सोचती हूं
वो क्या है
जो मेरे पैर जमीं पर
टिकने नहीं देता
और मैं
दुनिया के सारे नियम-कायदे
तज कर
सारी सच्चाई भूलकर
बस
डूबती चली जाती हूं तुममें......।
कि अब,
उबरने की न
ताकत बची है
न ख्वाहिश
बस
अब जाना चाहती हूं
वहां....
जहां से
प्यार के सोते फूटते हैं
और न जाने
किस राह निकलकर
मुझ तक पहुंचते हैं
और मैं...
सारा उब-डूब छोड़कर
सम्मोहित हो
पास चली जाती हूं
खो जाती हूं
तुममें...
तुम्हारी सांसों की आवाज में
सोचती हूं
वो क्या है
जो मेरे पैर जमीं पर
टिकने नहीं देता
और मैं
दुनिया के सारे नियम-कायदे
तज कर
सारी सच्चाई भूलकर
बस
डूबती चली जाती हूं तुममें......।
bahut badhiyaa
ReplyDeletepar meraa khyaal hai
jab doob hee gaye ho
jismein doobnaa chaahte they
phir fikr kis baat kee
log doobne ke ichhaa liye
bhatakte rahte
talash mein zindgee
gujaar dete
Waah anupam prem ki sunder parikalpana.
ReplyDeletemere blog par aane ke liye bahut bahut aabhaar ..
कभी कभी लगता है कि जैसे किसी सूफी का ख्याल सामने आ रहा है ... ख़याल एक रूह और जिस्म के साथ ... क्या निराकार से साकार की यात्रा भी होती है ... साकार से निराकार की छुअन के महसूस होने की बात अक्सर होती है ... आप अच्छा सोच सामने लाती हैं ... हमेशा ...
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति , आभार .
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग snshukla.blogspot.com पर भी पधारने का कष्ट करें.
दुनिया के सारे नियम-कायदे
ReplyDeleteतज कर
सारी सच्चाई भूलकर
बस
डूबती चली जाती हूं तुममें......।
बहुत ही सुन्दर खास कर निम्न पंक्तियाँ
bas dubati chali jati hu tumamae...
ReplyDeletebahut sundar
gajab ka likha hai...