Monday, November 28, 2011

तुममें.....

इतना डूबी हूं तुममें...
कि‍ अब,
उबरने की न
ताकत बची है
न ख्‍वाहि‍श
बस
अब जाना चाहती हूं
वहां....
जहां से
प्‍यार के सोते फूटते हैं
और न जाने
कि‍स राह नि‍कलकर
मुझ तक पहुंचते हैं
और मैं...
सारा उब-डूब छोड़कर
सम्‍मोहि‍त हो
पास चली जाती हूं
खो जाती हूं
तुममें...
तुम्‍हारी सांसों की आवाज में
सोचती हूं
वो क्‍या है
जो मेरे पैर जमीं पर
टि‍कने नहीं देता
और मैं
दुनि‍या के सारे नि‍यम-कायदे
तज कर
सारी सच्‍चाई भूलकर
बस
डूबती चली जाती हूं तुममें......।

6 comments:

  1. bahut badhiyaa
    par meraa khyaal hai
    jab doob hee gaye ho
    jismein doobnaa chaahte they
    phir fikr kis baat kee
    log doobne ke ichhaa liye
    bhatakte rahte
    talash mein zindgee
    gujaar dete

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  2. Waah anupam prem ki sunder parikalpana.
    mere blog par aane ke liye bahut bahut aabhaar ..

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  3. कभी कभी लगता है कि जैसे किसी सूफी का ख्याल सामने आ रहा है ... ख़याल एक रूह और जिस्म के साथ ... क्या निराकार से साकार की यात्रा भी होती है ... साकार से निराकार की छुअन के महसूस होने की बात अक्सर होती है ... आप अच्छा सोच सामने लाती हैं ... हमेशा ...

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  4. बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति , आभार .

    कृपया मेरे ब्लॉग snshukla.blogspot.com पर भी पधारने का कष्ट करें.

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  5. दुनि‍या के सारे नि‍यम-कायदे
    तज कर
    सारी सच्‍चाई भूलकर
    बस
    डूबती चली जाती हूं तुममें......।
    बहुत ही सुन्दर खास कर निम्न पंक्तियाँ

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  6. bas dubati chali jati hu tumamae...
    bahut sundar
    gajab ka likha hai...

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