Wednesday, September 14, 2011

कैसे थाम लेती......

जिंदगी में यूं आए तुम
जैसे अचानक
खि‍ली धूप में
बादल का एक टुकड़ा
आकर छांव कर जाता है
क्षण भर के लि‍ए ही सही
सुकून का अहसास दे जाता है
मगर तुम्‍ही कहो.....
क्‍या उस बादल के टुकड़े को
थाम सकता है कोई.....
उसके छांव के आसरे
सूरज से लड़ सकता है कोई
फि‍र कैसे कह दि‍या तुमने
कि‍ थाम लि‍या होता
दुपट़टे के कोने से
बांध लि‍या होता....
कि‍सी के बांधे
क्‍या बंधता है कोई
जब तक मर्जी न हो कि‍सी की
तो ठहरता है कोई
ऐसे बादल के टुकड़े तो
आते हैं......खो जाते हैं
हमारे चाहने से ही क्‍या
बादल बरसता है कभी
इसलि‍ए तो........
न रोका.....न थामा
जाने दि‍या, लगा
जहां कहीं
कड़ी धूप न होगी
ये बादल उमड़-घुमड़ आएंगे
सूखा छोड़कर मेरा आंचल
कि‍सी और का तो दामन भि‍गो जाएंगे......।


3 comments:

ashokjairath's diary said...

सुंदर कविता ... वैसे छोटे छोटे बादलों को जो प्यार से बांध लेते हैं ... उनको छाया हमेशा मिलती है ... बस हुनर आना चाहिए...

खुशा रहें ...

Udan Tashtari said...

शानदार!!

Sunil Kumar said...

सुंदर प्रेममयी रचना में असमंजस की स्थिति का आभास , आभार.........