Sunday, September 11, 2011

मन नहीं जानता...

मन की पीड़ा कुछ कम तो हुई
मगर
इनकी कुलांचों को
कैसे जकडूं.....
यह बार-बार
आशाओं की फुनगी पर
जा बैठता है
चहकता है
मचलता है और
अंतत एक दि‍न
यथार्थ से  टकरा
घायल हो जाता है
मगर चोट खाकर भी
नई उड़ान को
तत्‍पर हो जाता है
क्‍या मन ये
नहीं जानता
कि‍ इन कुलांचों का आनंद
क्षणि‍क है...
फि‍र भी
क्‍यों नहीं जकड़ पाती
अपने इस आवारा मन को
जो जब-तब
कल्‍पनाओं के पर लगा
दूर नि‍कल जाता है
और बो जाता है
मेरे लि‍ए.....
दर्द का वि‍ष बेल।

4 comments:

Sunil Kumar said...

अंतत एक दिन यथार्थ से टकरा जाता है , बहुत सुंदर भावाव्यक्ति यही रचना का सार है बधाई

Arun sathi said...

यही तो जीवन और जिंदा होने का प्रमाण है, कहीं कई लोग फुनगी पर नहीं बैठ पाते, बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति। आभार।

Pallavi saxena said...

यह जीवन है इस जीवन का यही है.... यही ...है यही है... रंग रूप थोड़े गम हैं थोड़ी खुशियाँ .....
समय मिले आपको कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर
आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/

ashokjairath's diary said...

ये दर्द कागज़ की अनोखी कतरन हैं ... दरजी कि मशीन के पास बिखरी रहती हैं ... वह समेत कर थैली में भर के संभाल लेता है इन्हें ... कौन जाने कब कोई किसी काम आ जाए ... मन का दरजी शायद इनके काम में आने के विषय में नहीं सोचता ... पर ... कोई तो स्पंदित सा रिश्ता होता है जो इन्हें कचरा नहीं होने देता ... तुम्हारी कविता तो इन्हीं कतरनों की केन है ... प्यार और आशीर्वाद ...