हां....... मैं झरना हूं
कहीं रूकना नहीं चाहती
कहीं बंधना नहीं चाहती
बस चाहती हूं
निरंतर बहती रहूं
निरंतर बहती रहूं
कलकल बहती नदी सी
क्यों रोकते हो मुझे
क्यों चाहते हो
इन नेत्रों में प्रेम रंग देखना
जबकि
इनमें से तो छलकता है
इन नेत्रों में प्रेम रंग देखना
जबकि
इनमें से तो छलकता है
प्रकृति का रंग
पेड़-पौधे, फूल पत्तियां
और है
बहते रहने का सुख
तब क्यों मेरा झरना होना
सालता है तुम्हें....
मत बांधों, मत करो गंदला
मत करो लांछित मुझे
बहने दो...... अनवरत
मैं स्वीकारती हूं
हां.... मैं झरना हूं
Hum to hamesha se jaante the ki aap jharna ho ... behti behti si kavita ... jharne ke girte paani ke uchchwaason see chhoo chhoo jaati hai...itni achchii baat kewal aap keh sakti hain ... bahut sa pyaar ... jharna bani behti rahiye nirantar aur sadaiv...
ReplyDeleteJaishreekrishna aap yunhi bahati rahen taaki aapki abhiwaykti ki sheetalata...... shabdon me itani jaan kaise daal dete ha!!!! Bahut sundar
ReplyDeleteBEHTARIN...
ReplyDeleteवाह....बेहतर
ReplyDeleteउत्तम
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 25 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआदरणीया मैम,
ReplyDeleteआपकी यह कविता पढ़ कर अत्यंत आनंद हुआ।
आपकी यह कविता बहुत ही सुखद और सुंदर भावनाओं से भरी हुई है।
मुझे पढ़ कर बहुत प्रेरणा मिली।
सच है कि जब कोई व्यक्ति स्वयं को प्रकृति के निकट समझता है और अपने आप को प्रकृति से एकाकार कर लेता है तो वह स्वभाव से सहज और आनंदित हो जाता है।
इतनी प्रेरणादायक रचना के लिए आपके बहुत बहुत आभार
वाह!!बहुत खूब ।
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