Thursday, May 5, 2011

फास्‍ला


फास्‍लों की ख्‍वाहि‍श
नहीं इस दि‍ल को
मगर भी होकर मजबूर
ये दि‍ल फास्‍ला चाहता है
खोकर तुमको कभी भी
नहीं आएगा करार इस दि‍ल को
मगर जमाने की खाति‍र तुझसे
ये दि‍ल फास्‍ला चाहता है

4 comments:

  1. छोटी छोटी छोटी बातें
    छोटे छोटे से एहसास

    यह पोस्ट तो सन्देश जैसी है ... सुन्दर ... लिखती रहें ... आशीर्वाद

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  2. तुम्हारी कविता बताती है कि जैसे तुम्हारे मन में बाह्यत सारी चुनरियां लहराती सी नृत्य कर रही हैं ... क्या साफ़ करके ... धो कर तुने उनको सुखाने के लिए फैला दिया था और्भूल गयी हों ... जओ ले आओ उनको ... शायद अकेलापन कम महसूस हों ...

    हमे अच्छा लगेगा यदि तुम बताओगी कि हमारी सोच गलत है ...

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  3. कई बातें हैं
    अनकही अनसुनी अनपढ़ी
    बिखरी बिखरी सी पड़ी रहती हैं
    बेंचों पे चौराहों सड़कों और गुलमोहरों के फूलों में
    काफी के खाली प्यालों से चपके ओंठों के निशानों में
    उन्हें कोई नहीं पढता
    तुम भी नहीं

    और फिर मर जाती हैं वे बातें
    लावारिस बच्चों की तरह

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