रूप का तिलिस्म जब अरूप का सामना करे, तो बेचैनियां बढ़ जाती हैं...
Thursday, May 5, 2011
फास्ला
फास्लों की ख्वाहिश नहीं इस दिल को मगर भी होकर मजबूर ये दिल फास्ला चाहता है खोकर तुमको कभी भी नहीं आएगा करार इस दिल को मगर जमाने की खातिर तुझसे ये दिल फास्ला चाहता है
तुम्हारी कविता बताती है कि जैसे तुम्हारे मन में बाह्यत सारी चुनरियां लहराती सी नृत्य कर रही हैं ... क्या साफ़ करके ... धो कर तुने उनको सुखाने के लिए फैला दिया था और्भूल गयी हों ... जओ ले आओ उनको ... शायद अकेलापन कम महसूस हों ...
हमे अच्छा लगेगा यदि तुम बताओगी कि हमारी सोच गलत है ...
कई बातें हैं अनकही अनसुनी अनपढ़ी बिखरी बिखरी सी पड़ी रहती हैं बेंचों पे चौराहों सड़कों और गुलमोहरों के फूलों में काफी के खाली प्यालों से चपके ओंठों के निशानों में उन्हें कोई नहीं पढता तुम भी नहीं
छोटी छोटी छोटी बातें
ReplyDeleteछोटे छोटे से एहसास
यह पोस्ट तो सन्देश जैसी है ... सुन्दर ... लिखती रहें ... आशीर्वाद
तुम्हारी कविता बताती है कि जैसे तुम्हारे मन में बाह्यत सारी चुनरियां लहराती सी नृत्य कर रही हैं ... क्या साफ़ करके ... धो कर तुने उनको सुखाने के लिए फैला दिया था और्भूल गयी हों ... जओ ले आओ उनको ... शायद अकेलापन कम महसूस हों ...
ReplyDeleteहमे अच्छा लगेगा यदि तुम बताओगी कि हमारी सोच गलत है ...
कई बातें हैं
ReplyDeleteअनकही अनसुनी अनपढ़ी
बिखरी बिखरी सी पड़ी रहती हैं
बेंचों पे चौराहों सड़कों और गुलमोहरों के फूलों में
काफी के खाली प्यालों से चपके ओंठों के निशानों में
उन्हें कोई नहीं पढता
तुम भी नहीं
और फिर मर जाती हैं वे बातें
लावारिस बच्चों की तरह
Nice...!!!!!
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