नहीं जानती थी, तब इसका मतलब
जब दोस्तों की मंडली जमती थी,
कोई धूप कोई छांव में बैठा
कुछ गुनता कुछ बुनता,कोई ठहाके लगाता था
और वो चुप से आकर
मेरे पीछे बैठा करता था
हमारी खिलखिलाहट में शामिल उसकी
मंद मुस्कान तब चौड़ी हो जाया करती थी
जब उसकी उंगिलयों में लपेटा
अपने दुपट़टे का कोना देखकर मैं
तरेरती थी आंखें
और वह मुझसे नजरें चुराता था ...
तब लगता था वो शरारत थी उसकी
मगर आज जब याद आती है उसकी कि
जाने किस शहर की किस गली में होगा वो
तब लगता है
अक्सर अपनी उंगिलयों में मेरा दुपट़टा लपेटकर
मन ही मन वो मुझसे कुछ कहता था ...
wah wah ji :) nice lines. :)
ReplyDeleteमैं दिल्ली में हूं। :-)
ReplyDeleteरश्मिजी मेरी रचनाएँ पढ़ने के लिए....बहुत बहुत धन्यवाद .......पर असल में तारीफ की हक़दार आप है क्योंकी आप की रचनाएँ...मन में बहुत गहरे तक असर करती है ......
ReplyDeleteमेरा ब्लॉग शायद कभी बनता ही नहीं ....लिखते तो हम बहुत पहले से है पर....इस तरह से लिखने की प्रेरणा अशोक सर से मिली ...जिनका रांची ...हम काफी शौक से पढते है ....वे आपकी व् आपके ब्लॉग की बहुत तारीफ करते है .....
ReplyDeleteबूँद भर याद जो सूखेगी नहीं ... खूबसूरत ...
ReplyDeleteजबरदस्त !!! हृदयस्पर्शी रचना !!! पुण्यशाली लोगो को देर से समझ में आती है ऐसी बाते ...जिन्हें तुरंत आ गयी वे आज दुनिया के दुर्भाग्यशाली लोगो में मान रहे है स्वयं को !!!
ReplyDeleteजबरदस्त !!! हृदयस्पर्शी रचना !!! पुण्यशाली लोगो को देर से समझ में आती है ऐसी बाते ...जिन्हें तुरंत आ गयी वे आज दुनिया के दुर्भाग्यशाली लोगो में मान रहे है स्वयं को !!!
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