Monday, May 10, 2010

क्‍या था सच


अहसास बेमानी थे
या शब्‍द
पता नहीं,
कि‍न भावों को पि‍रोकर
शब्‍दों का
मोती बनाया था,
आज पलटती हूं
गुजरा लम्‍हा
तो लगता है
वो शब्‍द, वो खत
जि‍नमें सि‍र्फ
अहसास समाए हैं,
क्‍या वो सच था
या सि‍र्फ
कल्‍पनाएं हैं।

11 comments:

  1. अहसासों को कसौटी पर परखती प्रशंसनीय रचना

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  2. लगा जैसे एक ही सांस में पूरी रचना आपने सुना दी। मैं बहुत खूब लिखकर आपकी तारीफ करता हूं। वाकई अच्छी रचना।

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  3. aapki kavitao mai sach hi hai, ek ashia sach jo samaj ke liyai hai.

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  4. बेहतरीन अभिव्यक्ति!

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  5. सच में कभी कभी अतीत के पन्ने पलटने पर ये महसूस होता है

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  6. बहुत कोमलता से लिखे हैं एहसास.....सुन्दर अभिव्यक्ति

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  7. भूतकाल तो भूत के सामान होता है.... भविष्यकाल कल्पनाओं पर टिका होता है......वर्तमान ही सच होता है ... अब कविता पुनः पढ़कर तय होगा की की वो कल्पना थी या सच......

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