एक प्रश्न
कुरेदता है बार-बार
कि जब समय
इतना परिवर्तनशील है
तो क्यों
अपने दुख-दर्द को
बांटता है आदमी,,,,
परिणति
कुछ भी नहीं
फिर उजालों से छिपकर
क्यों रोता है आदमी।
कुरेदता है बार-बार
कि जब समय
इतना परिवर्तनशील है
तो क्यों
अपने दुख-दर्द को
बांटता है आदमी,,,,
परिणति
कुछ भी नहीं
फिर उजालों से छिपकर
क्यों रोता है आदमी।
सही कहा आपने। बधाई।
ReplyDeleteGahri abhivyakti.
ReplyDeleteअब के बरस वक़्त है,
ReplyDeleteएक मेहमां की तरह,
मेरा वज़ूद भी है,
एक टूटे हुए तारे की तरह,
वो चला गया यूं आकर,
हवा के एक झोंके की तरह,
सफ़र लम्बा है मगर,
मिलेगी मुझको वो एक मंज़िल की तरह,
अब के बरस वक़्त है,
एक मेहमां की तरह,
मेरा ब्लॉग भी देखे
सेटिंग्स मे जाकर वर्ड वेरिफिकेशन हटाए टिप्पणी देने में आसानी होगी
क्योंकि मनुष्य हृदयहीन नहीं जब तक आत्मसम्मान या शंका की बात न हो!
ReplyDeleteachchi rachna
ReplyDeletesundar
ReplyDeleteहा...हा..हा..हा..हा...रोना तो अंधेरों में ही होता है रश्मि जी........उजाले तो खुशियों के लिए होते है....है ना.....??
ReplyDeleteइन उजालों - अंधेरों !!! रोने - हंसने के चलते जीवन क्षण -क्षण आगे की और सरकता रहता है !!! वरन उनसे भी पूछिए जो पत्थर बन कर इन फिलीग्स से परे हो गये है !!!
ReplyDeleteकविता भी है और प्रश्न भी.....
ReplyDeleteऔर उत्तर भी छिपा है इसी में
उत्तर की तलाश तो अपन नहीं करेंगे
कविता में मगर कोई गहन बात है....!!
वाह.
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