Sunday, May 25, 2008

गम न कीजि‍ए


नशेमन जला है
तो फि‍र बना लीजि‍ए
चमन के उजड़ने का
गम न कि‍या कीजि‍ए

साए में अंधेरों के
वक्‍त गुजर ही जाएगा
वो बैठे हैं पहलू में
बस ये सोचा कीजि‍ए

करना हो मुश्‍ि‍कल
गर फैसला जिंदगी का
हर फैसले को
तकदीर पर छोड़ दि‍या कीजि‍ए

दरि‍म्‍यां हमारे
फासला कम न होगा कभी
हकीकत में मुमि‍कन नहीं
ख्‍वाबों में मि‍ल लि‍या कीजि‍ए।

6 comments:

अबरार अहमद said...

बहुत सुंदर। लिखते रहिए।

Udan Tashtari said...

दरि‍म्‍यां हमारे
फासला कम न होगा कभी
हकीकत में मुमि‍कन नहीं
ख्‍वाबों में मि‍ल लि‍या कीजि‍ए।


-बहुत खूब.

Pramod Kumar Kush 'tanha' said...

Rashmi ji,

Kya khoob likhtii hein aap. badhayee...
Isii zameen par meri ghazal ke kuchh asha'r pesh hein..

baqht ke kaandhe pe baitha keejiye
waqt ko haathon se likha keejiye

aap ke gham se merii palkein jalein
hai bahut sastaa ye sauda keejiye

umra bhar bas sochna kaafii nahiin
sochna hai kya ye sovha keejiye...

shubhkamnaon ke saath...
p k kush 'tanha'

क्षितीश said...

बहुत दिनों के बाद आपकी एक नयी पोस्ट पढ़ने को मिली है.. कहाँ थीं आप? बहुत खूब लिखा है...!!! कभी इस नाचीज़ के ब्लोग की तरफ भी रुख कीजियेगा...!!!

पुरुषोत्तम पाण्डेय said...

क्या खूब लिखती हो, अच्छा लिखती हो बधाई है.

***Punam*** said...

दरि‍म्‍यां हमारे
फासला कम न होगा कभी
हकीकत में मुमि‍कन नहीं
ख्‍वाबों में मि‍ल लि‍या कीजि‍ए।


बहुत खूब....