Tuesday, March 18, 2008

ये दि‍ल


बेबात ही कभी-कभी
भर आता है दि‍ल
जाने क्‍यों कभी-कभी
तड़प जाता है दि‍ल
चाह कर भी नहीं मि‍लता
जब रोने का बहाना
तब अंदर ही अंदर
जल जाता है दि‍ल

तन्‍हाइयों से जब
जी घबराता है, तब
यादों को पास अपने
बुलाता है दि‍ल
आखि‍र क्‍या करें, कि‍ससे
करें शि‍कवा
यही सोचकर
खामोश हो जाता है दि‍ल

7 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर गीत है।अच्छा लगा।बधाई स्वीकारें।

अनुराग अन्वेषी said...

खामोशी का यह शोर हमने भी सुना। दुष्यंत कुमार की एक ग़ज़ल का शेर है :
सुनते थे खामोशी शोर से घबराती है
खामोशी ही शोर मचाए, ये तो हद है।

Anonymous said...

dil ko bahut sundar juban di hai rashmi ji,bahut badhai,aapki kavita padhna ek bahut achha anubhav hota hai ,har bar.

अबरार अहमद said...

बहुच अच्छा।

Sanjeet Tripathi said...

सुंदर!!

Vivek Ranjan Shrivastava said...

कम शब्दो में व्यापक अभिव्यक्ति ....यही तो मजा है कविता का .बधाई

Samit Kumar Pathak said...

behad khubsurat ......