Sunday, March 2, 2008

क्‍या-क्‍या ले जाओगे ?


जानती हूं
गर मुझसे दूर जाओगे
तो
लौटा दोगे मेरी तस्‍वीर
जला डालोगे
लि‍खी हुई मेरी तहरीर

छीन लोगे
मुझसे मेरा वो नाम
फाड़ डालोगे
मुझको लि‍खा हर खत
और तोड़ दोगे
मुझसे हर नाता
छुपा लोगे चेहरा
जो सामना हो जाएगा मुझसे

मगर ये तो बताओ
जो मेरे पास है
उसे कैसे ले पाओगे
और कैसे मैं
वापस कर सकती हूं
तुम्‍हारा वो सामान

कैसे करूंगी वापस मैं
तुमको वो
तुम्‍हारे दि‍ए
गुलाब की खुश्‍बू
कैसे लौटाऊंगी तुमको
तुम्‍हारे स्‍पर्श का अहसास

कैसे करूंगी वापस
वो प्‍यारे शब्‍द
जो तुमने मुझसे कहे थे
कैसे लौटाऊंगी वो सपने
जो तुमने दि‍खाए थे

बताओ तुम, जो दूर जाओगे
तो क्‍या-क्‍या ले जाओगे और दे जाओगे?

6 comments:

  1. सिर्फ़ इसीलिए एक लम्हे के लिए गुल्ज़ार साहब ने कहा है:

    हाथ छूटें भी तो रिश्ता नहीं छोड़ा करते,
    वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते ।

    तन का रुआ-रुआ खड़ा हो गया इस कविता को पढ़कर सचमुच बहुत अच्छी है!

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  2. bahut sundar,kuch rishey kabhi murjha bhi jate hai,magar yaadon ki khusbu chod jate hai,sach kya de jaoge kya kya le jaoge,nice

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  3. WAH.....SACH SAHI KHA APNEY....

    HUM TO KHO GAYE APKI RACHNA MEIN

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  4. बहुत बढिया.. एक गीत याद आ गया.. मेरा कुछ सामान, तुम्हारे पास परा है..

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