सूख चली है अरमानों की कलियां
फीकी पड़ रही है रिश्तों की मधुरता
कौन जानता था ऐसे
आत्मीय रिश्तों में भी
दरारें हुआ करती हैं
जो सोख लेती है सारा अपनत्व और
रह जाता है अवशेष
मात्र तिरस्कार, उपेक्षा और
अंतहीन दूरियां
फीकी पड़ रही है रिश्तों की मधुरता
कौन जानता था ऐसे
आत्मीय रिश्तों में भी
दरारें हुआ करती हैं
जो सोख लेती है सारा अपनत्व और
रह जाता है अवशेष
मात्र तिरस्कार, उपेक्षा और
अंतहीन दूरियां
4 comments:
कड़वे यथार्थ का अद्भुत प्रस्तुतीकरण....शब्द और भाव...दोनों लाजवाब. वाह.
नीरज
rashmi
गहन भाव समेटती कविता ।
रिश्तों की मधुरता ...तो सच में गुम हो गयी है ...और रह गयीं है अंतहीन दूरियां ....बेहद सुन्दर रचना ....
जो जी में आया था अपने
सब कुछ ही तो कह डाला है
साँझा दर्दों के करतब होते हैं ऐसे
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