चुप बैठी रहूं
कुछ न करूं
पर कोई शुभचिंतक ऐसा तो है
जो मेरी तमाम मुश्किलें हर लेगा
उदास रहूँ, अकेली फिरूं
भले खुद के लिए कुछ न करूं
पर वह ऐसा तो है
जो मुस्कुराने को कहेगा
मेरे सारे दर्द सहेगा
और ज़रूरत पड़ी
तो सबके सामने
मुझे अपनी बाहों में भर लेगा।
सच बता मेरी कल्पना,
उसे झूठा मानूं
या मानूं अपना?
चल छोड़, जैसा भी है,
जो भी है,
पर प्यारा है यह सपना।
2 comments:
acchi kavita.
sheehon ka maseeha koi nahi...Faiz kee line hai
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