पड़ोस में थोड़ी दूर पर एक छप्पर वाला घर था और सामने की तरफ़ मधुमालती की लतर फैली थी।शाम को उसकी भीनी खुशबू फैलती तो बड़ा ख़ुशनुमा एहसास होता। वो समय सबके इकट्ठे होकर बतियाने का था। सहेलियाँ, कुछ सहपाठी और कुछ के दीदी- भाई भी कभी-कभार हमारी मंडली में शामिल हो जाते।
गपशप के साथ कभी चाय पीते हमलोग तो कभी भूंजा खाते।शाम का धुँधलका घना होते-होते रात में बदलने लगता तो एकाएक कोई चौंक कर कहता- ‘बाप रे… इतना देर हो गया।’ इतना सुनते ही सब अपने घर की ओर भागते… तब सूरज ढलने के बाद पढ़ने के लिए नहीं बैठे या घरवालों को नहीं दिखे तो भाषण शुरू…
उस वक्त जब वहाँ से उठकर अपने घर की ओर जाने लगती तो हौले - हौले बजने वाले टेपरिकॉर्डर का वॉल्यूम बढ़ता जाता - ‘तुमने किसी की जान को, जाते हुए देखा है, वो देखो मुझसे …’
अब आलम यह है कि जब भी मधुमालती के फूल या उसकी ख़ुशबू से साबका पड़ता है, यही गीत कानों में बजने लगता है
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