Friday, May 24, 2024

अकेली मां

मां अक्सर बताया करती थीं
युवा दिनों में
जब जाती थीं पिता के साथ बाजार
लंबे डग भरते हुए
हमेशा पिता चार हाथ आगे निकल जाते थे
साथ चलने के लिए
छोटे कद की मां को लगभग दौड़ना पड़ता था


बड़ी हुई बेटियां तो मां ने
पिता के साथ बाहर जाना छोड़ दिया
गर्व से भरी मां दोनों बेटियों के हाथ थाम
बाजार जातीं, सिनेमा देखतीं,
सहेलियों सी खिलखिलातीं
पिता से कहतीं
जाइए अब अकेले और तेज कदमों से
नापिए दुनिया

और एक दिन पिता सचमुच
लंबे डग भरते हुए बहुत दूर निकल गए
मां अकेली छूट गईं

बेटियां कहां रह पाती हैं मां के पास हमेशा
तुलसी मुरझा जायेगी,
भूरी बिल्ली कहीं भूखे न रह जाए
छत पर उतरने वाले कबूतर उन्हें न पा उदास हो जाएंगे...
मां से भी तो अपना घर नहीं छूटता

अब भी उन दिनों को याद करती हैं मां
पिता के साथ स्कूटर पर बैठ
पूरा शहर घूमती थीं
अब थरथराते हैं पांव
सड़क पर चलते, रिक्शा चढ़ते

डबडबाई आंखों से इतना ही कहती हैं
तेरे पिता को आगे चलने की आदत थी न
तब भी तो मुड़कर नहीं देखते थे
कि पीछे कहां रह गई हूं मैं....

 

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

वैसे पिताजी कितने भी आगे चले हों उनकी रूह माँ में ही होती है :)
सुन्दर |

दिगम्बर नासवा said...

मन में कहीं गहरी उतर गई ये कमाल की रचना ...