थोड़ी देर बाद ही हम नुब्रा मेें थे। जिम्मी का कहना था कि पहले हमें ठहरने का इंतजाम कर लेना चाहिए तब हमलोग ऊँट की सवारी करने चलेंगे। उसकी बात मान हम आबादी की ओर गए। कई जगह टेंट लगे नजर आए। इस जगह का नाम हुण्ड़ुर था। पता लगा कि लोग यहाँ भी रात रहते हैं पर हमें किसी होटल या गेस्ट हाउस में रहना था। यहाँ के लोग अपने घर को ही गेस्ट हाउस में तब्दील कर रहते हैं। जिम्मी हमें जिस घर में सबसे पहले ले गया, हमलोगों ने अपना सामान वहीं पटका और बाहर भागे। क्योंकि शाम ढल जाती तो कुछ दिखना मुश्किल होता। दूूसरा, जिस घर में हम ठहरने वाले थे वह बहुत खूबसूरत था और उसके आंगन में सेब के तीन पेड़, चेरी के एक और फूलों के कई पौधे थे। मुझे भा गया वह घर। अब हम उस स्थान में पहुँचे जहाँ दो कूबड़ वाले ऊँट देखने को मिलते ।
मैदान के पास वहाँ एक पतली सी नदी थी जिस पर लकड़ी का पुल बना हुआ था। पुल से पहले ढेरों गाड़ियाँ लगी हुई थी, इससे पता लग रहा था कि बहुत से पर्यटक आए हैं यहाँ। हल्की बूंदें पड़ रही थी इसलिए लोग छतरी लेकर खड़े थे। एक जगह खूब भीड़ दिखी। पास जाकर देखा तो 25-30 ऊँट बैठे थे। कुछ ऊँट के साथ उनके बच्चे भी थे और सभी ऊँटों के कान में नंबर की पर्ची लगी हुई थी। हम उत्सुक होकर ऊँटों को देख रहे थे। तस्वीर लेने के लिए जरा नजदीक जाने से ऊँट घबरा के उठ गया। फिर भी हमने तस्वीरें लीें।
कोने में एक झोपड़ी जैसा था वहाँ कुछ लड़के पर्ची काट रहे थे। जिसका नंबर आता वह वापस आए ऊँट पर बैठ जाता। एक ग्रुप में 8-10 लोगों को लेकर एक ऊँटवाला चलता। लोगों में बड़ा उत्साह था दो कूबड़ वाले ऊँट पर बैठने का। मगर दिक्कत यह थी कि एक ऊँट पर एक ही आदमी बैठ सकता था। इसलिए बच्चों ने डर से मना कर दिया। वैसे भी हम बहुत दूर नहीं जाने वाले थे क्योंकि ऊँट से ज्यादा हमें आसपास के दृश्य में दिलचस्पी थी। फिर भी एक अनूठा अनुभव तो रहा। सबसे मजेदार कि जिस ऊँटनी पर सवारी होती आैर वो नजरों से ओझल होती, तो उसका बच्चा जोर-जोर से आवाज लगाता। इसलिए ऊँटनी भी जल्दी लौटकर वापस आ जाती। हमलोग ने एक फेरा लिया ऊँट का और वापस आए। कुछ स्थानीय महिला-पुरूष खड़े थे वहाँ जिनके साथ फोटो खिंचवाए। बहुत मासूम होते हैं लद्दाख के लोग। होंठों पर सदा सरल मुस्कान तैरती रहती है। वो लोग तस्वीरें लेने में झिझकते भी नहीं बल्िक और अच्छे से पोज देते हैं। हमारे यहाँ के ग्रामीण आदिवासी लोग तो तस्वीर के नाम पर मुंह छिपा लेते हैं। शायद पर्यटकों के लगातार आगमन ने उन्हें दोस्ती करना सिखा दिया है।
हम अब आराम से बालू पर कुछ दूर जाकर बैठ गए। सामने ऊँचे पहाड़ थे। ये काराकार्रम के पहाड़ थे, खूब ऊँचे। आसपास कंटीली, हरी-हरी झाड़ियाँ थी। रेत का रंग भी धूसर था, बिल्कुल स्लेटी। दूर तक रेत ही रेत मगर आश्चर्य की बगल में ही नदी थी। दूर कतार में पॉपलर के ऊँचे पेड़ झूम रहे थे और उसके पीछे बादल पर्वत की चोटी को चूमते नजर आ रहे थे। कह सकती हूं कि इतना कुछ एक साथ कहीं और देखने को नहीं मिल सकता। मैं अब तक भारत में जिन जगहों पर गई हूं, उनसे सबसे ज्यादा खूबसूरत है लेह-लद्दाख क्योंकि प्राकृतिक दृश्यों की जितनी विविधता यहाँ देखने को मिलीं, आज तक कहीं नहीं मिली थी। पर्वत पर ऐसी दरारें थी कि किसी पेंटिग सा आभास हो रहा था।
यहाँ हमें लामा भी दिखे और स्थानीय निवासी भी। दूर पर्वत पर बर्फ की परत थी। एक तरफ पहाड़, दूसरी तरफ रेत और बीच में नदी। हरे-हरे घास और कुछ कटीली झाड़ियाँ। हल्की ठंड थी और गरम कपड़े की जरूरत भी महसूस हो रही थी हमें। कहीं-कहीं पहाड़ों की आकृति इतनी अजीब थी कि हम उसमें कोई जानवर की नजर आने लगता। हल्की हवा, गहराती शाम और दूर दिखती दिस्कित मठ की प्रतिमा, सफेद बादल और नीला आकाश...मन कहता कि रुक जाओ यहीं, बस जाओ यहीं। मगर कब हुआ है मनचाहा।
शाम ढलने को थी। अब हम गाड़ी में बैठकर वापस मुड़े ही थे कि सड़क के उस पर रेत के समंदर पर नजर पड़ी। बिल्कुल अनछुआ सा। लोगों के पैरों के निशान नहीं थे क्योंकि लोग ऊँट की सवारी के बाद वापस चले जाते थे। कुछ लोग ही इधर-इधर बिखरे दिखे। एक बार फिर हम रेत में चल पड़े। वहाँ रेत पर कई तस्वीरें खिचवाई। मजे की बात कि बालू के ऊपर भी हरे पौधे थे कई जगह और उन पर बैंगनी रंग के फूल खिले थे। कुछ पौधे कहीं भी किसी भी हाल में उग आते हैं। ऐसे द्श्य हमें प्रेरित करते हैं। जबकि राजस्थान में हमें ऐसा कुछ नहीं मिला था। यहाँ सामने देखने से पहाड़, रेत और पीछे पलटने पर बिल्कुल ऊटी सा नजारा। हरियाली, पहाड़ और बादल।
बिल्कुल मन नहीं हो रहा था उस स्थान से वापस आने का। पर हमें लगा कि कुछ और भ्ाी चीजें देखी जाए, सो लौटने लगे। एक जगह गांव के पास सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है हर शाम। वहाँ स्थानीय नृत्य-संगीत देखते हैं पर्यटक। मगर अफसोस कि दलाई लामा के आने के कारण आज वहाँ कोई कार्यक्रम नहीं था। हम मायूस होकर वापस उसी रेस्ट हाउस की तरफ चल दिए जहाँ रात गुजारनी थी। बगल में पानी की आवाज आ रही थी। लोगों ने नदी से नहर गांव के अंदर ही निकाल दिया है जिससे उनका रोजमर्रा का काम चलता रहे। वहाँ बाहर एक धर्म चक्र था जिसे मैंने और अवि ने मिलकर घुमाया उसके बाद रेस्टहाउस में। यहाँ कच्चे सेब, चेरी और तरह-तरह के फूलों के सानिध्य में समय गुजारने के बाद छत पर देर तक बैठे रहे। पास ही पहाड़ी पर एक गोम्पा नजर आ रहा था मगर पता चला कि खूब चढ़ाई है। इसलिए जाना संभव नहीं हुआ। प्रकृति वाकई बेहद दिलदार है। वहाँ ठंड थी। कुछ देर बाहर छत में बैठे रहे चाय के साथ। जब रात गहराने लगी तो अंदर गए।
कुछ देर में अभिरूप ने चाॅकलेट खाने की इच्छा की तो हमलोग पास के दुकान में गए। वहाँ दो लोग आराम से बैठकर बाते कर रहे थे। हमने बिस्कुट और चाॅकलेट मांगा तो बड़े माॅल की तरह उन्होंने इशारा किया आप खुद जाकर निकाल लो, जो चाहिए। हमें अच्छा लगा कि लोग ईमानदारी पर यकीन करते हैं। उस छोटे से दुकान में सब्जी से लेकर मैगी तक सब उपलब्ध था।
सब थक के चूर थे इसलिए जल्दी ही रात का खाना खाया और सो गए। सुबह निकलना था वापस। चूंकि ठंढ थी सो रजाई में आराम से सोए। यहाँआक्सीजन की कमी भी नहीं थी इसलिए कोई परेशानी भी नहीं हुई।
सुबह जल्दी उठकर चाय ब्रेड लिया और तैयार हो कर पहले सेबों को चखने पहुँचे। सेब छोटे थे सो खट्टे लगे। इसकी चटनी अच्छी लगती, ऐसा ख्याल आया। निकले तो फिर से स्वच्छ आकाश पर फैले बादलों पर नजर गई। रेत के टिब्बे और बीच में हरियाली जैसे नखलिस्तान हो। पिनामिक गांव से आगे का रास्ता सियाचिन जाता है, जहाँ हमारा जाना प्रतिबंधित है। नुबरा में 'हॉट-स्प्रिंग' है जो यहाँ से 45 किलाेमीटर की दूरी है। चूंकि हमने कई 'हॉट-स्प्रिंग' देखे हैं इसलिए केवल उसे देखने के लिए इतना लंबा सफर करना ठीक नहीं लगा हमें। अब वापस लद्दाख की आेर....
क्रमश:- 7
6 comments:
हर एक घटना को और हर एक दृश्य को ऐसे बयां किया है मानो पढ़ने वाला खुद एक बार को आपके साथ का यात्री मान लेता है।
खूबसूरत नजारे
आप भी बहुत खूबसूरत लग रही हैं।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस - शरद जोशी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
नुब्रा घटी के मनमोहक चित्रों के साथ सजीव वर्णन है आपका ...
चित्र देख कर मौसम का एहसास हो रहा है ...
धन्यवाद
धन्यवाद
जी शुक्रिया
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