बचपन से सुना है नेतरहाट के बारे में। एक तो वहां का सूर्योदय और सूर्यास्त, दूसरा नेतरहाट विद्यालय, जो अपने शिक्षा के कारण बेहद प्रसिद्ध है। बिहार बोर्ड की परीक्षाओं में माना जाता था कि प्रथम दस तक का स्थान नेतरहाट आवासीय विद्यालय के बच्चे ही प्राप्त करते थे।
यह संयोग ही रहा कि देश के अनेक जगहों में जाना हुआ मगर अपने ही झारखंड के इस सुरम्य वादियों में जा नहीं पाई। शायद मन में यह भाव रहा हो कि यह तो अपने घर के पास ही है। जब चाहे जाया जा सकता है। हुआ भी ऐसा ही। आनन-फानन में नेतरहाट जाने की योजना बनी और 2 घंटे के अंदर परिवार के कुछ लोगों के साथ निकल पड़ी।
रांची से नेतरहाट की दूरी करीब 155 किलोमीटर है। यह क्षेत्र लातेहार जिले में पड़ता है। कुड़ू के बाद लोहरदगा, फिर घाघरा से दाहिनी ओर मुड़ना पड़ा नेतरहाट के लिए। रास्ता अच्छा और जाना पहचाना था, सो आराम से चल दिए हम। घर से निकलते ही दोपहर हो गई थी। समय बचाने के लिए खाना घर ही से पैक कर लिए और चल पड़े। लोहरदगा के पहले एक जगह रास्ते में रूककर हमलोगों ने भोजन किया और आगे निकले।
गर्मी का दिन.. दोपहर की धूप मगर पूरे रास्ते हरियाली। आम से लदे पेड़ और नीचे बच्चों का जमावड़ा। कोई पत्थर चला कर आम तोड़ रहा है तो कोई गुलेल से निशाना साध पके आम जमीन पर गिरा रहा है। लड़कियां भी कम नहीं थी। खूब ढेला चलाती दिखीं। कुछ बच्चियों ने अपने फ्राक में आम समेट रखा था और कुछ तुरंत गिरे आमों का स्वाद ले रहे थे।
सच कहूं..तो अपना बचपन याद आ गया। आम चुनने के चक्कर में कभी गर्मी का अहसास हुआ ही नहीं। सारी दोपहर आम के बगीचे में बीतता था। पूरे रास्ते इन पेड़ों और बच्चों को देखकर अहसास हुआ कि वाकई फलदार पेड़ लगाना परोपकार का कार्य है। मेरे जैसा कोई भी पथिक अपनी इच्छा पूरी कर सकता है अपने ही हाथों आम ताेड़ कर खाने की।
खैर ..इन्हीं नजारों के बीच झारखंड के सुंदर गांवों को पार करते हम पहुंचे बनारी गांव। इसके बाद सड़क ऊपर की तरफ जाने लगी। गोल-गोल चक्कर खाती सड़कें। ऐसा लगा कि हम किसी पहाड़ पर चढ़ रहे। पिछले वर्ष डलहौजी गए तो ऐसा ही लगा था बिल्कूुल। नेतरहाट समुद्रतल से 3622 फीट की ऊंचाई पर है। हम जरा आगे बढ़े तो सड़क किनारे बंदर नजर आए, जैसा कि हर पहाड़ी स्थल पर दिखता है।
हम चक्कर खाते ऊपर की ओर जा रहे थे। सड़क के दोनों तरफ बांस का जंगल था। हमने पहली बार बांस का जंगल देखा। अब जाकर नेतरहाट के नाम का अर्थ भी समझ आया। नेतरहाट नाम इस लिए पड़ा कि नेतुर का अर्थ (बांस) होता है और हातु यानि (हाट)। इन दोनों को मिलाकर बना नेतरहाट। बहरहाल हम बांस के जंगल के बीच से गुजर रहे थे। बीच-बीच में कचनार के पेड़ भी नजर आ रहे थे। कचनार के फूल बेहद खूबसूरत होते हैं। यहां आदिवासी जनजीवन में कचनार के कोमल पत्तियों का साग खाया जाता है। बहुत स्वादिष्ट होता है यह साग। और फूलों की सुंदरता से तो सभी परिचित ही हैं।
हम जंगल की सुंदरता निहारते हुए आगे चलते गए। मन में डर भी था कि कहीं सूर्यास्त रास्ते में ही न हो जाए। बीच जंगल में जाने की इच्छा होते हुए भी समय का ख्याल रखते हुए हम नहीं रूके। अब जंगल का दृश्य बदलने लगा था। बांस का जंगल साल के ऊंचे लंबे पेड़ और चीड़ के दरख्तों के जंगल में बदल चुका था। हम खुशी और आश्चर्य से चीख ही पड़े....हमारे झारखंड में चीड़ के जंगल..हमें आजतक पता ही नहीं। दिया तले अंधेरा इसीलिए कहा जाता है। यहां ऊंचे यूकोलिप्टस के पेड़ भी हमारा स्वागत कर रहे थे।
हम मुग्ध भाव से आसपास देखते आगे बढ़ चले। शाम 5 बजे हम नेतरहाट में थे। पूछने पर पता लगा कि सनसेट प्वांट यहां से करीब दस किलोमीटर की दूरी पर है। अब वक्त नहीं था कुछ देखने-सुनने का। हम सीधे पहुंचे सूर्य डूबने का नजारा देखने। रास्ते में एक खूबसूरत बड़ा सा तालाब दिखा, जो किसी झील की तरह लग रहा था।
जब हम सनसेट प्वांइट पहुंचे तो सूर्य अस्तचलगामी था। एक बछड़ा अपनी मां का दूध पी रहा था। अवि ने रूककर गौर से देखा। तस्वीर भी ली। आगे बढ़े तो लोगों की भीड़भाड़ थी। सरकार ने सौंर्दयीकरण करा दिया है। बैठने के लिए शेड की व्यवस्था है तो ऊपर से नजारा देखने का जगह भी। मतलब ऐसी जगह जहां शाम प्राकृतिक नजारे देखकर बिता सके।
हम जैसे ही बढ़े..सड़क पर भूरे रंग के फूल बिछे थे। जैसे हमारा स्वागत कर रहे हो। ऊपर नजरें उठाकर देखा तो साल के पेड़ फूलों से लदे थे। ऊपर नीले आकाश में आधा चांद दमक रहा था। पश्चिम में आकाश पीला था। दो तीन पहाड़ियां नजर आ रही थी। मुझे डलहौजी की पहाड़ियां याद आई। ऐसा ही खूबसूरत लगता था वहां भी। नेतरहाट पठार के निकट की पहाड़ियां सात पाट कहलाती हैं। आंखों को ऐसा आभास हुआ कि सातों पहाड़ दिख रहे हैं सूरज की पाली रौशनी में चमकते हुए।
सखुआ के जंगल के बीच है यह स्थल। आसपास की मिट्टी का रंग लाल था और बैरिकेटिंग के बाद एक सुंदर स्त्री-पुरुष की प्रतिमा भी थी। लड़की के हाथ में बास्केट और लड़के के हाथ में बांसुरी। स्वभाविक है जिज्ञासा ठाठें मारने लगी मेरे दिमाग में कि प्रतिमा क्यों बनाई गई यहां।
पता चला, लड़की का नाम मैग्नोलिया था। मैग्नोलिया एक अंग्रेज अधिकारी की बेटी थी। गांव में एक चरवाहा रहता था। वह प्रतिदिन अपने मवेशियों को लेकर जंगल में एक स्थान पर जाता, जहां से खूबसूरत आसमान से देखते-देखते घाटियों में छुपता था सूरज। वह बहुत मधुर बांसुरी बजाता था। मैग्नोलिया को इसी आदिवासी चरवाहे से प्यार हो गया। वह रोज चरवाहे की बांसुरी सुनने के लिए वहां जाती।
जब अंग्रेज अधिकारी को इसका पता लगा तो बहुत नाराज हुआ। उसने चरवाहे को समझाने की कोशिश की। जब नहीं माना तो उसने चरवाहे को मरवा दिया। मैग्नोलिया को जब इसका पता लगा तब विरह से व्याकुल होकर इसी स्थान पर आई और अपने घोड़े सहित यहां से नीचे घाटी में कूद कर अपने जीवन काे समाप्त कर लिया। उसी की याद में बना है यह सनसेट प्वांइट जिसे नाम दिया गया मैग्नोलिया प्वांइट। आज भी वह पत्थर मौजूद है जिस पर बैठकर वो चरवाहा बांसुरी बजाया करता था। जाने कथा सच्ची है या गढ़ी हुई, मगर लोगों को आकर्षित करती है।
अब लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। कुछ लोग हमारी तरह कैमरा हाथ में पकड़े पश्चिम की ओर टकटकी बांधे बैठे थे। धूप से पत्तियां चमक रही थी। सखुआ के फूल जमीन पर थे और खुश्बू हवाओं में । परिसर में एक चाय की दुकान थी। वहां लोगों की भीड़ लगी हुई थी। गरमागरम पकौडियां निकल रही थी। लोग चाय-पकौड़ी के साथ शाम का आनंद ले रहे थे। सूखे पेड़ के ठीक बगल में सूर्यास्त का नजारा सबसे सुंदर लगेगा, इस अहसास के साथ मैं वहीं खड़ी रही।
क्रमश:
13 comments:
बहुत सुंदर पोस्ट,,, प्रकृती के नजदीक जाने का अहसास कराया।
बहुत सुंदर रश्मि जी। नेटरहाट मैं कई बार गया हु। लेकिन आपके शब्दों के साथ आज वहां की खुबसुरती को महसुस किया हुं।
बहुत सुंदर संस्मरण
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-06-2017) को
रविकर शिक्षा में नकल, देगा मिटा वजूद-चर्चामंच 2541
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
पुरानी यादें ताज़ा हो गयी। सुंदर प्रस्तुति। बधाई!
जंगलों से हमारा आदिकाल से नाता रहा है ,आज के जीवन में वह संबंध क्षीण हो पर कर बार-बार उमड़ता है.बाँसवनों के संबंध में एक काव्यमय मान्यता है कि जब पवन की तरंगें वेणु-बनों से गुज़रती हैं तो उनकी फूँक से बाँसुरी की तान बज उठती है.सच हो न हो कल्पना बहुत मनोरम है.
Dhnyawad aapka
वाकई बहुत मनोरम कल्पना है। आभार प्रतिभा जी ।
लिखना सार्थक हुआ ।
धन्यवाद
धन्यवाद
शुक्रिया
बहुत सुंदर लिखा
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