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चंबा का प्रसिद्ध लक्ष्मीनारायण मंदिर |
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रावी नदी और उसके किनारे बसा चंबा
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अब हम मंदिरों की नगरी चंबा में थे।रावी नदी के किनारे 996 मीटर की उुंचाई पर स्थित है चंबा पहाड़ी। ड्राइवर ने गाड़ी पार्क की और हमें रास्ता बता दिया कि उधर जाना है। हम दोपहर में पहुंचे थे। बहुत तीखी धूप थी। जल्दी-जल्दी चलते हुए एक पार्क के पास पहुंचे। पूछने पर पता लगा वही पास में भूरी सिंह संग्रहालय है। इस संग्रहालय की स्थापना 1908 में राजा भूरी के नाम से की गई थी। 1914 में राजा भूरी सिंह को पहले विश्वयुद्ध में अंग्रेजो की सहायता करने के लिए 'नाइटहुड' की उपाधि से अलंकृत किया गया था। चूंकि सोमवार को संग्रहालय बंद रहता है इसलिए हम मंगलवार आए थे, ताकि चंबा का इतिहास और अच्छे से जान सके। मगर हमारा दुर्भाग्य। उस दिन किसी महापुरूष की जयंती थी जिस कारण बंद था संग्रहालय।
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भूरी सिंह संग्रहालय |
अब हमारी जानकारी में एक लक्ष्मीनारायण मंदिर, चौगान और कुछ मंदिरों को छोड़ कुछ बचता नहींं था। हमारे पास वक्त भी ज्यादा नहीं थी और धूप इतनी लग रही थी कि लगा सड़क पर पैदल तो कतई नहीं चल पाएंगे। तो जल्दी-जल्दी मंदिर का रास्ता पूछकर जाने लगे। हम एक सब्जी मंडी से होकर गुजरे। ऊंची चढ़ाई के बाद आता है मंदिर। दोनों तरफ दुकानें बनी हुई थी। मंदिर पहुंच गए तो सबसे पहले हमलोग कुछ देर के लिए बैठ गए।
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लक्ष्मीनारायण मंदिर |
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मीन मुख वाले भगवान विष्णु की आदमकद प्रतिमा |
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मंदिर का बाहरी भाग |
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छोटे-छोटे बने मंदिर |
चंबा का इतिहास बहुत पुराना है। माना जाता है कि इसकी स्थापना 550 ईस्वी में मेरू बर्मन ने की थी। उसने ब्रह्रमपुरा जो अब भरमौर के नाम से जाना जाता है, उसे अपनी राजधानी बनाई थी।
चंबा रियासत भी पश्चिमी हिमालय क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाली पहाड़ी रियासतों में से एक रही है। सम्बन्धित राजवंश के शासकों को सूर्यवंशी माना जाता है तथा यह धारणा भी ऐतिहासिक सत्यता के काफी नजदीक स्वीकार की जाती है कि इस राजवंश के लोगों का सम्बन्ध मूलरूप में अयोध्या से रहा है।
चम्बा राजवंश के संस्थापक स्वीकार किए जाने वाले राजा मरू का शासनकाल लघु अवधि का था क्योंकि राज्य की स्थापना करने के कुछ अन्तराल के बाद ही उसके द्वारा शासन का भार अपने पुत्र को सौंप दिया गया और वह अपने मूल स्थान कल्पा अथवा कल्प लौटकर एक बार फिर साधु बन गया।
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बहुत खूबसूरत है यह मंदिर |
920 ईस्वी में इस वंश के शासक राजा शैल वर्मन (प्रचलित नाम साहिल वर्मन) ने रावी घाटी के निचले हिस्सों पर विजय प्राप्त की तथा विजय के उपरांत उसने ब्रह्मपुर के स्थान पर चम्पा अथवा चम्बा को नयी राजधानी बनाया। शैल वर्मन के सत्तारूढ़ होने की लघु अवधि के बाद ब्रह्मपुर राज्य में 84 योगियों द्वारा भ्रमण करने की जानकारी उपलब्ध होती है। यहां बने मंदिर को चौरासी के नाम से जााना जाता है। किवंदन्ति है कि इन योगियों की राजा द्वारा पर्याप्त सेवा की गई जिससे प्रसन्न हो कर इन्होंने राजा को दस पुत्र प्राप्त होने का आशीर्वाद दिया। समय बीतने के साथ राजा के दस पुत्र तथा एक पुत्री हुई जिस का नाम चम्पावती रखा गया। एक अन्य धारणा के अनुसार इसी चम्पावती के नाम पर चम्पा अथवा चम्बा का नामकरण हुआ है।
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मंदिर के पीछे से ली गई तस्वीर |
अपने शासनकाल में शैल वर्मन अपने विजय अभियानों में व्यस्त रहा तथा उसने निचली रावी घाटी के अधिकांश छोटे राणाओं को अपना आधिपत्य स्वीकार करवाया। ऐसा माना जाता है कि सम्बन्धित अभियान की अवधि में उसकी पत्नी और पुत्री चम्पावती भी उसके साथ व्यस्त रहती थीं। इसी अभियान के दौरान राजा की पुत्री चम्पावती को चम्बा का कुछ क्षेत्र इतना अच्छा लगा कि उसने अपने पिता से इस क्षेत्र में अपनी राजधानी स्थापित करने का अनुरोध किया। जो स्थान राजा की पुत्री को पसन्द आया था उसमें से अधिकांश क्षेत्र कुछ ब्राह्मणों के अधिकार क्षेत्र में था जिसके कारण शैल वर्मन तत्काल इस क्षेत्र पर कब्जा करने की स्थिति में नहीं था। अन्त में यह निर्णय हो गया कि सम्बन्धित भूमि राजपरिवार को प्रदान कर दिए जाने के बदले नगर में होने वाले हर विवाह के अवसर पर सम्बन्धित ब्राह्मण परिवार को उनकी भूमि के मालिकाना अधिकारों को मानते हुए आठ चकली यानी की चम्बा रियासत की मुद्रा के आठ सिक्के प्रदान किए जाएंगे। यह समझौता हो जाने के उपरान्त शैल वर्मन ने ब्रह्मपुर की जगह चम्बा में नई राजधानी की स्थापना की।
शैल वर्मन के बाद उसका पुत्र युगाकर वर्मन गद्दी पर बैठा। ऐसा माना जाता है कि युगाकर वर्मन द्वारा चम्बा में गौरी शंकर मंदिर की स्थापना की गई थी जो कि वहां के लक्ष्मी मन्दिर नारायण परिसर में स्थित है।
बाद में भी इस वंश का शाासन चलता रहा। अनेक सदियों तक चम्बा राज्य कश्मीर का आधिपत्य स्वीकार करता रहा है तथा ऐसा माना जाता है कि 12वीं शताब्दी के करीब चम्बा राज्य पुनः स्वायत हो गया। प्रमाण मिलता है कि 1804 में अमर सिंह थापा ने चंबा पर कब्जा कर लिया था। 1863 में मेजर ब्लेयर चंबा का पहला शासक बना और 8 मार्च 1948 को चंबा के आखिरी राजा लक्ष्मण सिंह ने चंबा के भारत विलय की घोषणा की थी। 15 अप्रैल 1948 को चंबा हिमाचल प्रदेश के चार जिलों में से एक जिला बना।
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शिव मंदिर के बाहर स्थापित नंदी |
यह तो हुई इतिहास की जानकारी। मगर हमने इतना वक्त नहीं रखा था कि सब जगह घूम पाते। भरमौर जाने की इच्छा बलवती हो गई मगर अबली बार कहकर खुद को समझाया हमने। तो हम थे मंदिर के प्रांगण में। शिखर शैली के बने मंदिर में खूबसूरत नक्काशी की गई थी। सामने लक्ष्मीनारायण की प्रतिमा थी और पुजारी ने हमें प्रसाद दिया। लक्ष्मीनारायण मंदिर समूह का प्रमुख लक्ष्मीनाथ मंदिर आकार में सबसे बड़ा है, जिसकी उंचाई 65 फुट है। इस मंदिर के गर्भगृह में सफेद संगमरमर की विष्णु की प्रतिमा है। इस प्रतिमा के चार मुख है, जो क्रमश वासुदेव, वरहा, नरसिंह व कपिल के हैं। मूर्ति के सामने के दो हाथों में शंख व कमल है, जबकि पीछे के हाथ चक्कर पुरुष व गदा देवी के सिर पर स्थित है। विष्णु के चरणों के मध्य भूदेवी की प्रतिमा है। यह प्रतिमा कश्मीर शैली में निर्मित है। ऐसा प्रतीत होता है कि राजा साहिल वर्मन ने इन मंदिरों के निर्माण हेतु कश्मीर से कुशल शिल्पों को बुलाया था। धूप में जमीन बहुत गरम हो गई थी। जलते पांवों के साथ पूरा परिसर घूमे हम।
कहा जाता है कि सबसे पहले यह मंदिर चम्बा के चौगान में स्िथत था परंतु बाद में इसे राजमहल (जो वर्तमान में चम्बा जिले का राजकीय महाविद्यालय है) के साथ स्थापित कर दिया गया। मंदिर पारंपरिक वास्तुकारी और मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। मंदिर का ढांचा मंडप के समान है। इस मंदिर समूह में महाकाली, हनुमान और नंदीगण के मंदिरों के साथ-साथ विष्णु व शिव के तीन-तीन मंदिर है।
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प्रसिद्ध चंबा रूमाल |
मंदिर से निकले तो ढलान से उतरते हुए तुरंत नीचे बाजार की ओर आए। मैंने सुन रखा था कि चंबा के रूमाल और चप्पल काफी प्रसिद्ध हैं। लगा, देख तो लूं कैसे होते हैं। कुछ दुकानों में पूछा तो सबने इंकार किया। तब एक छाेटी सी दुकान दिखी जहां उसके नाम के साथ लिखा था कि यहां चंबा का रूमाल मिलता है। वाकई वहां मिली मगर एक दो पीस ही उपलब्ध थी। दुुकानदार ने बताया कि आजकल बहुत कम बनती है रूमालें। यह कला भी खो न जाए। रूमाल की खासियत है कि इसमें दोनों ओर से कढ़ाई की जाती है। इस रूमाल को बनाने में दस दिन से 2 महीने तक लगता है। जैसा आकार और डिजाइन उतनी ही कीमत। इसे लगाने के लिए खास तौर पर लकड़ी का फ्रेम आता है जो चारों ओर घूमता रहता है। इसका नाम रूमाल है मगर वास्तव में यह कढ़ाई के द्वारा पेंटिंग की जाती है। फ्रेम लेकर आना तो संभव नहीं था इसलिए मैंने निशानी के तौर पर खरीद लिया साथ ही पिताजी के लिए एक चंबा की टोपी।
वहां चंबा शाल भी बनतीी हैं। चंबा की चित्रकला का जन्म राजा उदय सिंह के समय 18वीं शताब्दी में हुआ था। जब हम वहां से निकले तो बस स्टैंड के पीछे नजर पड़ी एक दुकान पर। वहां गई तो उन्होंने कई रूमाल दिखाए। वाकई गजब की कढ़ाई थी। शिव परिवार, गद्दा-गादिन, राजा-रानी। मगर बहुत महंगे थे यहां रूमाल। जो मुझे पसंद आए वो छह हजार से आठ हजार के थे। मैंने तस्वीर ली और दुकानदार को धन्यवाद कह निकल आई क्योंकि पहले ही एक रूमाल खरीद लिया था।
अब तलाश थी चंबा चप्पल की। यहां भी कई दुकान देखनी पड़ी तब जाकर मिला। खूबसूरत काम होता है चप्पलों पर। चमड़े की बनी होती हैं और सस्ती भी हैं। मगर लगता है अब ये चीजें लुप्तप्राय हो जाएंगी अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो।
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चामुंडा मंदिर से दिखता चंबा |
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ऊपर पहाड़ी पर स्थित चामुंडा मंदिर के पीछे बहती रावी नदी |
हम वापस गाड़ी में थे। ड्राइवर ने कहा कुछ खास नहीं अब देखने को। मुझे महसूस होता है कि कई बार हम इस चक्कर में कुछ जरूरी चीजें भी मिस कर जाते हैं। उसने चौगान दिखाया जहां प्रतिवर्ष मिंजर मेले का आयोजन होता है। एक सप्ताह तक चलता है मेला और स्थानीय निवासी रंग-बिरंगे परिधान धारण कर आते हैं। यह एक खुला घास का मैदान था जिसमें बच्चे खेल रहे थे।
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मुख्य मंदिर के बाहर |
हमारे पास वक्त बहुत कम था, मगर मुझे चामुंडा मंदिर जाना था। लक्ष्मीनारायण मंदिर के पुजारी ने मुझसे कहा था कि वो मंदिर देख कर जाना। तो मैंने कहा कि बस देख लेंगे चलो अभी है आधा घंटा हमारे पास। तो ड्राइवर मान गया। मंदिर पहाड़ की चोटी पर है। जैसे-जैसे हम चढ़ने लगे चंबा की खूबसूरती देख मंत्रमुग्ध होने लगे। ढलानदार छतों वाले मकान, शिखर शैली के मंदिर, पीछे पर्वत, नीचे बहती रावी नदी। बहुत ही खूबसूरत लगा चंबा हमें।
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मंदिर के बाहर का दृृश्य |
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आदर्श, अमित्युश और अभिरूप |
हम मंंदिर पहुंचे। जनश्रुति के अनुसार यह मंदिर राजा साहिल वर्मन द्वारा चंबा शहर बसाने से पहले से मौजूद था। मगर मूल मंदिर के नष्ट होने पर फिर से इसका निर्माण किया गया। स्लेट पत्थरों से आच्छादित पिरामिडनुमा छत है। मंदिर के दरवाजों के ऊपर, स्तंभ और छतों पर खूबसूरत नक्काशी है। यह काष्ठकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यहां कई घंटियां लगी हुई थीं।यहां एक अभिलेख उत्कीर्ण है कि पंडित विद्याणर ने 2 अप्रैल 1762 को 27 सेर वजन और 27 रुपये मूल्य की इस घंटी को दान किया था। मंदिर के पीछे शिव का एक छोटा मंदिर है। भारतीय पुरातत्व विभाग मंदिर की देखभाल करता है। चामुंडा मंदिर में बैशाख माह में मेला लगता है। इस समय बैरावली चंडी माता अपनी बहन चामुंडा से मिलने आती हैं। यहां ऊंचाई से चंबा शहर को देखना अपने मन में एक ऐसी छवि अंकित करना हीै जिसे हम कभी भूल नहीं सकते। स्लेट निर्मित छत, रंग बिरंगे घर, कलकल बहती रावी और पहाड़ पर बसा चंबा। बस अद्भुत।
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शिव मंदिर |
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नीचे चंबा शहर और चौगान मैदान |
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वापसी में सड़क से दिखता खूबसूरत नजारा |
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चीड़ के जंगलों में लगी आग |
मौसम सुहाना हो चुका था हल्की बूंदाबांदी के बाद। अब हम वापस उसी रास्ते निकल लिए रावी के किनारे-किनारे। चीड़ के जंगलों में आग लगी हुई थी। कुछ दिन पहले का उत्तराखंड और हिमाचल के जंगलों का दावानल याद आ गया। खूबसूरत पहाड़, पर्वत, नदी और सहृदय पहाड़ी लोगों को देखते देखते हम अपनी मंजिल पठानकोट पहुंच गए। वहां ट्रेन लेट थी। घंटा भर इंतजार करना पड़ा फिर रात के सफर के बाद दिल्ली और शाम को वापस अपने घर। रांची। भीग रही थी धरती, मौसम भी कूल था। दिल्ली की गर्मी का नामोनिशां नहीं।
डलहौजी, खज्जियार और चंबा, वाकई हम याद करेंगे हमेशा और बेशक जालियांवाला बाग और स्वर्णमंदिर भी।
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पठानकोट से पहले खूबसूरत शाम |
2 comments:
bahut hi achcha yatara ka varanan kiya hai aap ne... ise padh ke mene bhi kabhi na kabhi yaha jane ka or bhagwan ji ke darshan kar ke kudarat ke soundarya ko niharna hai... thanks.... aabhar.. aap ka.. ab agli yatara ka vivaran kab aayega ..... inatazar karenge thankss.
Dhnyawad kishor ji..is bar ki yatra ka ye antim vritant tha..iske pahle post kiya hai dalhousie ke bare me..aap padhe jarur achha lagega aapko.
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