Monday, November 3, 2014

नारायण...जागो...अब जागो....


तुम्‍हें याद है आज का दि‍न.....देवताओं के जागने के दि‍न ...चार्तुमास की नि‍द्रा के बाद आज ही नारायण ने अपनी आंखें खोली थीं, और मेरी दुनि‍या......

उस दि‍न तुम न जाने कि‍तनी दूरी...कि‍तने फासले खींचने चले थे हमारे दरमि‍यां। मैं हैरत से भरी, हतप्रभ, वक्‍त के क्रूर पंजों तले खुद को, हमारे रि‍श्‍ते को छटपटाते देख रही थी।

उस दि‍न

दर्द से तडपते..लहुलुहान मन लि‍ए मुझे पुकार रहे थे...सारी चेतना एकाग्र कर...मैं जाने कि‍स उलझन में खोई सी..सोई सी रही...बेखबर... इंतजार के पल...काटे नहीं कट रहे थे....

आई एक आवाज..अस्‍फुट सी...फंसी-फंसी....मैं पागल हो उठी....तुम..इस हाल में....मैं ..मैं कहां हूं..क्‍यों हूं...कोई नीम-बेहोशी में मेरा नाम पुकार रहा है...और मैं मानि‍नी बनी बैठी हूं...

आह...पक्‍के रि‍श्‍ते की कच्‍ची डोर....मन एक और हजारों मील की दूरी.....उस पर इतनी बेबसी....ओह...मैं मर क्‍यों नहीं जाती....मैं जा क्‍यों नहीं पाती
आंखों से झर-झर आंसू....बेबस से दो इंसान....बेहि‍साब दूरी..और जमाने की मजबूरी.....क्‍यों है ये सब हमारे दरमि‍यां.....

सर झुकता है बार-बार उस ईश्‍वर के आगे....पूजा के जल में मि‍ले हैं मेरे आंसू....हे शि‍व..मैं अभि‍षेक करूंगी इससे तुम्‍हारा......

हे नारायण...जागो...अब जागो....और दो आर्शीवाद...मेरे पूरे रहने का...मेरी कामना को पूर्ण करो....मेरे परि‍वार को जोड़े रखो...मत तोड़ो एक भी पाया....भरभरा कर गि‍र जाएगा सब कुछ......

तुम उठते हो बार-बार....देते हो आवाज....हिचकी सी आई.....लगा..याद कि‍या ....वो तुम ही हो....बस तुम ही....

तुम्‍हारी एक आवाज प्राण वायु फूंक जाती है इस मृत तन में। हां मेरे जि‍स्‍म को मौत तो नहीं आई थी, मगर मृत समान ही थी...
 जी गई....बस तेरी एक आवाज, एक नजर और हथेलि‍यों की जुम्‍बि‍श से....

आज फि‍र देवठान है, कार्तिक शुक्‍ल एकादशी......उठो देव....आशीष दो, न बि‍छड़े कोई....न रूठे तकदीर .....शुभ हो्.....

उत्तिष्ठोत्तिष्ठगोविन्द त्यजनिद्रांजगत्पते।
त्वयिसुप्तेजगन्नाथ जगत् सुप्तमिदंभवेत्॥

उत्तिष्ठोत्तिष्ठवाराह दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे।
हिरण्याक्षप्राणघातिन्त्रैलोक्येमङ्गलम्कुरु॥

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