क्या करूं अपना...बताओ
तुम्हें देख कर ही रो देती हैं आखें
बार-बार कुछ अटक आता है
गले में
सोचती हूं
कि अब दूं आवाज तुम्हें
या जाने दूं
समझ पाओगे कभी
मेरे जज्बात
मेरी भावनाएं तो तुम्हारे लिए
ठीक वैसी ही होंगी, जैसे
बहार आने के पहले गिरे
सूखे पत्तों के ढेर
जिन्हें
एक अफसोस के साथ
तुम
बुहार दोगे अपनी जिंदगी से
ये सोचते हुए कि
हर बार पतझड़ मेरे ही मन के आंगन में
इतने सूखे पत्ते क्यों गिरा जाती है
मैं उकता जाता हूं इनसे
है न..........
तस्वीर--साभार गूगल
7 comments:
bahut sundar abhivyakti... Badhai
http://ehsaasmere.blogspot.in/2013/02/blog-post_18.html
बहुत दिलकश व भावपूर रचना है. अच्छी लगी.
very beautiful..
बहुत सुंदर रचना ...
कविता के भाव एवं शब्द का समावेश बहुत ही प्रशंसनीय है
हर शब्द शब्द की अपनी अपनी पहचान बहुत खूब
बहुत खूब
मेरी नई रचना
खुशबू
प्रेमविरह
bahut achhi panktiyaan
जिन्हें
एक अफसोस के साथ
तुम
बुहार दोगे अपनी जिंदगी से
ये सोचते हुए कि
हर बार पतझड़ मेरे ही मन के आंगन में
इतने सूखे पत्ते क्यों गिरा जाती है
मैं उकता जाता हूं इनसे...बहुत ही खूब !!
Post a Comment