Saturday, March 31, 2012

परिणति प्रेम की.......

परि‍णति क्‍या है प्रेम की.....
क्‍या प्‍यार है
माघ में चलने वाली पछुआ हवा
जो तन-मन को सि‍हरा दे
अपने वजूद के सि‍वा
सब कुछ बि‍सरा दे......
या है ये
खेल बच्‍चों का
शी-शा के जैसा,
जब एक हवा में पींगे भरता है
तो दूसरा
जमीन पर जमा
धरातल की बातें करता है.....
या फि‍र
तोता-मैना की तरह
बेखबर हो
पत्‍तों की ओट में छुपकर
चोंच लड़ाना
और अपने सि‍वा
सारी दुनि‍या को भूल जाना...
और अंतत:
जमाने से लड़कर
एक हो जाना
फि‍र......
चंद सालों के बाद
एक छत के नीचे, एक ही बि‍स्‍तर पर
एक-दूजे की तरफ
पीठ करके सो जाना....
क्‍या प्‍यार इसलि‍ए ही होता है ??

11 comments:

संजय भास्‍कर said...

शब्दों को सुन्दरतापूर्ण ढंग से पिरोकर भावमय कविता बनाना आपकी खूबी ह.....
आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत सच्ची बात कही आपने....
प्यार में भावनाएं कहीं खो सी गयी हैं....

अब किस्से कहानियों में ही पढते हैं प्यार ....

सुन्दर रचना
अनु

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
--
अन्तर्राष्ट्रीय मूर्खता दिवस की अग्रिम बधायी स्वीकार करें!

M VERMA said...

शायद प्रेम की परिणिति प्रेम ही है.

Yashwant R. B. Mathur said...

आज 01/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

लोकेन्द्र सिंह said...

वर्तमान में प्रेम जैसी कोई चीज़ दिखती नहीं... बहुत ही कम बचा है...

Arun sathi said...

एक बहुत ही संवेदनशील कविता।
क्या प्रेम ऐसा ही होता है?
हां प्रेम ऐसा ही होता है।

Sunil Kumar said...

कुछ अलग सी पोस्ट सच्चाई से कही गयी अच्छी लगी

रचना दीक्षित said...

क्‍या प्‍यार इसलि‍ए ही होता है ?

उचित प्रश्न उठाया आपने. बढ़िया प्रस्तुति.

बधाई.

राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' said...

रश्मि जी आप के शव्दों में
रचना की हर एक वो खूबी नजर आती है जो एक अछि रचना के लिएय जरूरी है
यानि भाव, शव्दों को एक डोर में बंधती हुयी ये मधुर पंक्तियाँ
........परि‍णति क्‍या है प्रेम की.....
क्‍या प्‍यार है
माघ में चलने वाली पछुआ हवा
जो तन-मन को सि‍हरा दे
अपने वजूद के सि‍वा

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यदि ऐसी परिणति हो तो फिर प्रेम कहाँ ?