''तुम्हें तो ठहरना था
उस घड़ी तक मेरे पास
जब तक
सांसों की डोर बंधी है मुझसे...
और एक मजबूत दरख्त की तरह
थामे रहना था
मेरे अविश्वास...मेरी लड़खड़ाहट को
अपने विश्वास के मजबूत घेरे में
मगर तुम तो
बालुई जमीन पर पनपे बरगद निकले
हवा के एक झोंके ने
वजूद ही उखाड़ डाला तुम्हारा
चकित हूं...
जिसके आसरे खेनी थी
जीवन की नैया
मझंधार में उसी खेवैये ने
डुबो दी मेरे विश्वास की नैया.....।''
6 comments:
बहुत सुन्दर भाव रश्मि जी....
अच्छी रचना...
badhiya rachna...
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बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
ओह
sundar prastuti,mere blog par aapka svagat hae .
प्रभावी रचना....
सादर बधाई.
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