पेरवा यानी कबूतर और घाघ का अर्थ है गिरता हुआ जल। झारखंड में कई घाघ हैं मगर पेरवा घाघ के हरे जल को देखकर आप मोहित हुए बिना नहीं रह सकते। सात खटिया की रस्सी डालने पर भी जिसकी गहराई की थाह नहीं ली जा सकी, वह जगह है पेरवा घाघ।
प्राकृतिक सौंर्दय के गुणगान से पहले जो एक अनूठी कहानी पता चली, उसे बता दूं। जहां से कारो नदी का पानी गिरता है, उसके आसपास चट्टानों से बनी गुफाएं हैं। किवंदति है कि पहले उस जगह असंख्य कबूतर रहते थे। जिस पत्थर से पानी गिरता है, उसे स्थनीय लोग सुग्गाकटा कहते हैं। उस पत्थर को एक सुग्गे अर्थात तोते ने काटकर ऐसा स्थान बनाया कि पानी वहां से गिरने लगा, और जिस चट्टान को काटकर अलग किया वह पानी से बहुत हुए कुछ दूर जाकर ठहर गया है जिस पर सैलानी पिकनिक मनाते हैं।
खूंटी क्यों जाना, जब हमने नया रास्ता चुना है। तो हमलोग सीधे तोरपा चौक पहुंच गये। वहां चौक बांयी ओर एक रास्ता जशपुर की ओर निकलता है। करीब 16 किलोमीटर आगे जाने पर जंगल के बीच है पेरवा घाघ। नीचे जाने के दो रास्ते हैं। जहां बोर्ड लगा है, उससे आगे जाने पर सीढ़ियां उतरकर नीचे जाना पड़ता है। वहीं बांयी तरफ थोड़ा आगे जाकर पार्किंग में गाड़ियां लगती हैं, उससे होकर जाना ज्यादा आसान है। हमें यह पहले से पता था इसलिए दूसरा रास्ता चुना हमने।
इस कोरोना में भी इतनी अधिक गाड़ियां पार्किेग में खड़ी थीं, कि अनुमान हो गया नीचे जबरर्दस्त भीड़ होगी। पूरे रास्ते ग्रामीण खाद्य पदार्थ की दुकान सजाकर बैठे थे। फुचका ( गोलगप्पा) के ठेले, धुसका, छिलका, मूंगफली...जाने कितने किस्म के व्यंजन थे। यह लगा कि कोई बिना खाने का इंतजाम किये भी आ गया तो खाने के लिए पर्याप्त सामग्री यहां उपलब्ध है। मगर हमलोग तो खाना वहीं बनाने के लिए सब कुछ लेकर आये थे।
फॉल गुलजार था। सब ओर लोग भरे पड़े थे। कहीं खाना बन रहा तो कहींं चूल्हा सुलगाया जा रहा। हमने भी एक साफ जगह चुनकर दरी बिछा कर सामान जमा लिया। नजर घुमाने पर सब ओर पानी तो दिखा पर झरना दिखाई नहीं दिया। पता चला पुल पारकर जाने पर ही झरना दिखेगा। कुछ लोग खाना बनाने में लग गये और बाकी लकड़ी के बने छोटे से पुल को पार करने का किराया 5 रूपये देकर पार कर गये। पता लगा कि ग्रामीणों ने पर्यटकों की सुविधा के लिए खुद ही इस पुल का निर्माण किया है और इससे प्राप्त शुल्क का साफ-सफाई में उपयोग किया जाता है।
पुल पारकर पत्थरों पर चढ़कर ऊपर जाना पड़ा। बेहद गर्मी थी दिसंबर के अंतिम दिनों में भी। ऊपर से दिखा कलकल करता सफेद झरना और नीचे हरा पानी। अद्भुत दृश्य। ऐसे हरे रंग का झरना मैंने झारखंड में पहली बार देखा था।हम कुछ देख बैठकर वहां की सुंदरता निहारते रहे। ऊंचे-ऊंचे चट्टान से बहकर आता पानी और उस पर तैरती एक लकड़ी की नाव जिसे दोनों ओर से रस्सियों से बांधकर खींचा जा रहा था। पर्यटक मित्र जयसिंह ने बताया कि यह अनूठा आइडिया उनका ही है जिससे सैलानी पानी के नजदीक तक जा सकते हैं। दो साल पहले इस नाव का निर्माण किया गया था। अभी एक ही नाव है मगर पहली जनवरी से एक और नाव उतारा जा रहा है क्योंकि अब बहुत भीड़ होने लगी है। पांच वर्ष पूर्व ग्रामीणों ने समिति बनाकर पेरवा घाघ को संवारने का कार्य शुरू कर दिया था।
हमारा भी मन हो गया कि झरने के पास जाएं, इसलिए लौट आए। वापस आकर देखा कि हमारे कूछ साथी पानी में कूद चुके हैं। जहां झरना गिरता है वहां गहराई है मगर आगे निकलने पर पानी कई चट्टानों से विभक्त होकर बहती है। हम जहां ठहरे थे वहां पानी गहरा नहीं था। वैसे भी इतनी तीखी धूप थी सबका मन नहाने के लिए मचल उठा। पानी बेतरह ठंडा था मगर मस्ती में सब घंटो झूमते-नाचते और नहाते रहें।
खाने के बाद नाव पर सैर के लिए चलें। वहां बहुत भीड़ थी पर हमने पर्यटक मित्र जयसिंह को कह रखा था इसलिए हमारी बारी पहले आ गई। हम सब नाव पर बैठकर झरने की ओर जाने लगे। पेरवा घाघ की खासियत है कि यह झरना सालों भर सूखता नहीं है। इसी झरने के बगल में एक गुफा है जहां शिवलिंग है। कई पीढ़ी पहले यहां के ग्रामीण उस शिवलिंग के दर्शन के लिए जाते थे। थोमन सिंह नाम का ग्रामीण सात दिनों तक इस खोह में रहा था, ऐसा ग्रामीण कहते हैं।
इतनी कहानी तो शायद पेरवा घाघ जाने वाले पर्यटक जानते ही हैं मगर मैं वो सुना रही हूं जो बहुत कम लोगों को पता होगा।
पेरवा घाघ की गुफाओं में पेरवा का देव रहता था। जरूरत के समय वह ग्रामीणों को जीविका चलाने के लिए धान और मछली कर्ज के रूप में दिया करता था। उसी धान की खेती कर और मछली पालन करके स्थानीय निवासी जीविकोर्पाजन करते थे। जब फसल पकती तो कर्ज चुका देते थे वह। मगर एक बार ऐसा हुआ कि किसी ग्रामीण ने करहैनी धान ( काले रंग का धान) देव को लौटा दिया। जला हुआ धान देखकर देव रूष्ट हो गया और उसने कर्ज देना बंद कर दिया।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती....
देव ने बाहर निकलना और लोगों से मिलना और कर्ज देना बंद कर दिया।वह साल में एक बार अपने ससुराल जरूर जाता है। तोरपा-मुरहू रोड में एक गांव है पहरिया, वही सुसराल है उसका। परंतु वह सामने से नहीं जाकर 'बिंगकिलोर' अर्थात सांप के जाने वाले नाले से होकर जाता है अपने ससुराल। पेरवा देव जब ससुराल जाता है तो घनघाेर बारिश होती है और सभी तालाब में बेहिसाब मछलियां मिलतीं हैं।
इस अनूठी कहानी के आलोक में मैं सारे दृश्य देखती और कल्पना करती झरने के नजदीक पहुंची। सब उल्लास से भरे चिल्ला पड़े। पानी का छींटा हम पर पड़ रहा था और ऊपर खोह या गुफाओं को तलाशती मेरी नजरेंं प्राकृतिक सुंदरता पर ठहर-ठहर जा रही थी। बेशक झरने की ऊंचाई ज्यादा नहीं और नीेच से देखनेेपर लगता है समतल से पानी गिर रहा है। मगर संकरी घाटी होने के कारण पानी का जमाव बहुत ही सुंदर लगता है।
मेरी ऊपर उद्गम पर जाने की इच्छा अधूरी रह गई क्योंकि शाम ढलने वाली थी और जंगल-चट्टान को पारकर ही वहां पहुंचा जा सकता है।
नाव से उतरकर देखा कि सूरज कहीं छिप सा गया था, हालांकि अस्त होने में समय था पर हम बहुत नीचे थे इसलिए बस लालिमा ही दिख रही थी। पानी, बड़े-बड़े पत्थर और अस्त होते सूर्य की नरम ताप ने सुंदर वातावरण बना दिया था। पार्किंग तक लौटते अंधेरे की चादर तनने लगी थी। हमने प्रकृति और पेरवा घाघ को मन ही मन शुक्रिया कहा और लौट आये।
12 comments:
Achchi prastuti Raahmi ji short and simple.
प्रकृति के विलक्षण रूपों को निहारने का अपना ही आनन्द है.
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १५ जनवरी २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुन्दर प्रस्तुति।
मकर संक्रान्ति का हार्दिक शुभकामनाएँ।
बहुत सुन्दर
बहुत बहुत सराहनीय प्रस्तुति
रोचक जानकारी के साथ
बहुत सुंदर प्रस्तुति
बधाई
उम्दा जानकारी
नयनाभिराम दृश्यों का सुंदर वर्णन! आपका यात्रा संस्मरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा। --ब्रजेंद्रनाथ
बहुत सुंदर
बहुत सुंदर
बहुत सुन्दर
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