Monday, January 11, 2021

सोहराई पेंटिंग का जादू

कुछ वर्ष पहले एनएच 33 पर रांची से रामगढ़ जाने वाली सड़क से गुजरी तो देखा, ओरमांझी बिरसा जैविक उद्यान के पास दीवारों पर बड़ी खूबसूरत पेंटि‍ंग उकेरी गई है। इतनी खूबसूरत कि‍ नि‍गाहें फिर-फिर देखने को वि‍वश हो जाएं। सोहराई पर्व तो जानती थी मगर पेंटि‍ंग की तरह इसे दीवारों पर उकेरा हुआ पहली बार देखा था।

उसी क्षण इच्‍छा हुई कि‍ इन दीवारों पर कूची चलाकर खूबसूरत बनाने वालों से मि‍लूं और प्रत्यक्ष  देखूं कि‍ कैसे सधे हाथों से दीवारों पर रंग-बि‍रंगी आकृति‍ उकेरी जाती है।

हमारे झारखण्ड में  सोहराई पर्व  दीपावली के दूसरे दि‍न  मनाया जाता है। बचपन की याद है कि दीपावली की दूसरी सुबह..यानी सोहराई के दिन जानवरों को सजाकर उन्मुक्त विचरने के लिए छोड़ दिया जाता था।

उस वक़्त सोहराई पेंटिंग तो नहीं जानती थी मगर आसपास के घरों में दूधी मि‍ट्टी से दीवारों पर आकृति‍यां बनाते देखा था घरों में। कई घरों में भिंडी के डंटल वाला हि‍स्‍सा काटकर उसे रंग में डूबोकर दीवार पर फूल-पत्‍ति‍यां उकेरी जाती। कई दीवारों पर तो उँगलियों से ही इतनी सजीव चि‍त्रकारी होती थी कि मिट्टी के घर खिल उठते थे।

बचपन की यादों को ताज़ा करने के लिए शहर के विभिन्न हिस्सों समेत रेलवे स्टेशन में भी सोहराई पेंटि‍ग नजर आने लगा। सरकार स्थानीय कला को बढ़ावा दे रही,  यह सोचकर बहुत अच्छा लगा।

कुछ लोगों से पता किया तो जानकारी मिली कि‍ दीपावली के आसपास हजारीबाग के कुछ गांवों में जाने पर वहां की दीवारों पर रंग उकेरते कलाकार मि‍ल जाएंगे।

देखने की जि‍ज्ञासा तो जबरदस्‍त थी, इसलिए दीपावली के दूसरे दि‍न कुछ साथि‍यों के साथ एकदम सुबह नि‍कल पड़ी राँची से हजारीबाग की ओर । हजारीबाग से करीब 35 कि‍लोमीटर दूरी पर स्‍थि‍त है भेलवाड़ा गांव, जहां की पार्वती देवी सोहराई की मंजी हुई कलाकार है।

हमारे एक साथी पहले भेलवाड़ा जा चुके थे इसलिए
सुबह  करीब ग्‍यारह बजे हमलोग भेलवाड़ा गांव में पार्वती देवी के घर के सामने खड़े थे। मैं तो उनके घर के बाहरी दीवार की खूबसूरत कलाकृति देखकर ही पागल हुई जा रही थी।  

वि‍भि‍न्‍न प्रकार के फूल-पत्‍तों के साथ जानवरों की आकृति‍ से पूरी दीवार रंगी हुई थी। सफेद, काला, हल्‍का पीला और कत्‍थई या मि‍ट्टी के रंग का प्रयोग कर सभी आकृति‍यां बनाई गई थीं। आकृति‍यों में स्‍पष्‍ट नजर आ रहा था घोड़ा, सांप, मछली और कई अनचि‍न्‍हे से जानवर एवं फूल-पत्‍ति‍यां। 

हमारे साथ गये लोग पार्वती देवी को तलाशने लगे और मैं रंगों और पेंटिंग की दुनि‍या में खो गई। फटाफट कई एंगल से तस्‍वीरें नि‍कालने लगी।

पार्वती देवी अपने गाय-बकरि‍यों को लेकर चराने गई थी।  पड़ोस के एक आदमी को कह उनको अपने आने की खबर भि‍जवाई और हमलोग सोहराई पेंटिंग देखने में डूब- से गए। कहना न होगा, कि‍ खपरैल घर भी इन रंगों और आकृति‍यों से इस कदर खूबसूरत लग रहा था कि‍ आज के टेक्‍सचर भी इसके आगे कुछ नहीं।


कुछ देर में ही पार्वती देवी आ गईं और उन्‍होंने घर के अंदर का दरवाजा खोला। हालांकि‍ बाहरी कमरा खुला था जि‍स पर एक खाट बिछी हुई थी। बुलाने जाने से पहले उनका पड़ोसी इतनी मेहमानवाजी नि‍भा गया कि‍ हमें घर के अंदर बि‍ठा दि‍या था। यह सम्मान भी गांवों में ही मिलता है । शहर में अनजान लोगों को कोई घर के कमरे में नहीं बिठाता।

मगर हमलोगों को बैठना कहां था ? हमें तो पेंटि‍ग की बारीकी देखनी और समझनी थी। यह सब बि‍ना पार्वती देवी के आए संभव नहीं था। उनके आने तक मैंने आसपास के जमा हुए लोगों से इतनी जानकारी प्राप्‍त कर ली कि‍ गांव की आबादी करीब दौ सौ की है, जि‍नमें कुछ घर करमाली और अधि‍कांश कुर्मी महतो के हैं। यह भी देश के सामान्‍य गांव की ही तरह है मगर अब इस गांव की पहचान सोहराई आर्ट बन गया है। गांव के अधि‍कांश घरों में सोहराई पेंटिंग होती है, मगर पार्वती देवी ने सोहराई को अंतरराष्‍ट्रीय पहचान दी है।


अब हमलोग पार्वती देवी के आंगन में पहुंच गए। चारों तरफ की दीवार पर पेंटिंग की हुई थी। सामने गोहाल था जि‍समें बकरी और गाय बंधे थे। लि‍पाई कर मि‍ट्टी की दीवारों को चि‍कना कर दि‍या गया था और उसके ऊपर कलाकारी की गई थी।



''कि‍न रंगों का प्रयोग कर आकृति‍यां उकेरती हैं आप?''  , इस सवाल पर जवाब में पार्वती देवी ने बताया कि केवल प्राकृति‍क रंगों का ही इस्‍तेमाल करती हैं वह।

पेंटिंग करने की प्रक्रिया में  दीवारों को पहले गोबर से लीपा जाता है। इसके बाद नागरी मि‍ट्टी से उसकी पुताई कर एक तरह से कैनवास बना दि‍या जाता है। फि‍र हाथों के इस्‍तेमाल से वि‍भि‍न्‍न आकृति‍यां बनाने लगती हैं दीवारों पर।

यह हुनर उन्‍हें वि‍रासत में मि‍ली है। कहती हैं कि‍ जब वो बारह साल की थी तभी अपनी मां से यह सब कुछ सीखा था। सोहराई पेंट करके वो घोड़ा, खरगोश, कदंब के पेड़ और फूल-पत्‍ति‍यां उकेरती हैं दीवार पर।

मैंने सोहराई पेंटिंग में हाथी, सांप, मोर और हरि‍ण की भी आकृति‍ देखी थी, मगर पार्वती देवी ये सब आकृति‍यां नहीं बनातीं। क्‍यों ,पूछने पर कोई स्पष्ट कारण नहीं बता पाईं। बस इतना कहा कि हमें शुरू से ही मना कि‍या गया है, इसलि‍ए नहीं बनाते।  कई कलाकार दूसरे रंगों का भी इस्‍तेमाल कर लेते हैं मगर हम केवल प्राकृति‍क रंग का ही उपयोग करते हैं।

जाहिर है, मन में उठा सवाल होंठो पर आ गया-

'' रंग कहां से लाती हैं ?'' 

''अलग-अलग रंगों की मि‍ट्टी होती है, जि‍से चरही से दस कि‍लोमीटर दूर सदरा गांव से लाया जाता है। काली, पीली और गेरूआ मि‍ट्टी को पीसकर पहले चलनी से चाल कर फुलाने छोड़ दि‍या जाता है। उसके बाद उस मि‍श्रण में गोंद मि‍लाकर रंग तैयार कि‍या जाता है।''


सोहराई कला का इति‍हास तलाशने की कोशि‍श की तो पता चला कि‍ इस क्षेत्र के इस्को पहाड़ियों की गुफाओं में आज भी इस कला के नमूने देखे जा सकते हैं। इसका प्रचलन हजारीबाग जिले के बादम क्षेत्र में आज से कई वर्ष पूर्व शुरू हुआ था जि‍से बादम राजाओं ने काफी प्रोत्साहित किया।


आदिवासी संस्कृति में इस कला का महत्व जीवन में उन्नति से लगाया गया था, तभी इसका उपयोग दीपावली और शादी-विवाह जैसे अवसरों पर किया जाता था। जिससे कि धन और वंश दोनों की वृद्धि हो सके।


पार्वती देवी के बताने से याद आया कि‍ कोबहर की प्रथा अब भी कई परि‍वारों में है जहां शादी के बाद दूल्हा–दुल्‍हन को एक कमरे में ले जाया जाता है जिसे 'कोहबर' कहते हैं।

कमरे की दीवार पर रंगों से कुछ आकृति‍यां बनाई जाती थी, जि‍समें फूल-पत्‍ते, जानवर और कई बार दुल्‍हन की डोली लि‍ए कहार की आकृति‍ भी होती थी। मैंने कई शादि‍यों में देखा है इस प्रथा को निभाते । कोहबर के आगे दूल्हा-दुल्‍हन बैठकर अंगूठी छुपाने-ढूंढ़ने का खेल खेलते हैं और दुल्‍हन की सहेलि‍यां दूल्हे के साथ चुहल करती हैं।


पता लगा कि‍ बादम राज में जब किसी युवराज का विवाह होता था और जिस कमरे में युवराज अपनी नवविवाहिता से पहली बार मिलता था उस कमरे की दीवारों पर उस दिन को यादगार बनाने के लिये कुछ चिन्ह अंकित किये जाते थे और किसी लिपि का भी इस्तेमाल किया जाता था जिसे वृद्धि मंत्र कहते थे।


बाद के दिनों में इस लिपि की जगह कलाकृतियों ने ले ली और फूल, पत्तियां एवं प्रकृति से जुड़ी चीजें उकेरी जाने लगीं। कालांतर में इन चिन्हों को सोहराई या कोहबर कला के रूप में जाना जाने लगा। धीरे-धीरे यह कला राजाओं के घरों से निकलकर पूरे समाज में फैल गयी। राजाओं ने भी इस कला को घर-घर तक पहुंचाने में काफी मदद की।

कहा जाता है कि‍ यह यह कला हड़प्‍पा संस्‍कृति‍ की समकालीन है। इसका प्रयोग वि‍वाह के बाद वंश वृद्धि‍ और दीपावली के बाद फसल वृद्धि‍ के लि‍ए इस्‍तेमाल करते हैं। मान्‍यता है कि‍ जि‍स घर के दीवार पर कोहबर और सोहराई की पेंटिंग होती हैं उनके घर में वंश और फसल की बढ़त होती है।

पार्वती देवी बताती हैं कि‍ इस कला के बदौलत वह वि‍देश घूम आई और इन सबके पीछे बुलू इमाम का हाथ है, जो तीन दशकों से ज्यादा वक्त से इस कला को मुकाम देने की कोशिश में जुटे हैं।


पार्वती की आंखों में वि‍देश में कला प्रदर्शन कर लौटने की चमक तो है, मगर नि‍यमि‍त आमदनी नहीं होने का मलाल भी है। कहती हैं - ''नाम तो मि‍ला हमें मगर रोजगार नहीं। अगर सरकार इस कला को सहेजती है तो परंपरा जीवि‍त रहेगी, वरना खत्‍म हो जाएगा।''


बात करते करते हम बाहर नि‍कल आए। साथ में कुछ तस्‍वीरे ले ही रहे थी कि‍ दूर से एक झक सफेद कपड़ों में झुकी कमर को लाठी का सहारा देकर हमारी ओर आती एक स्‍त्री दि‍खी। वो पार्वती की 80 वर्षीया मां थी। पास आने पर बताया कि‍ नदी में नहाने गईं थी और वहीं से लोटे में पानी भरकर ला रही हैं।


बातचीत में वो तनिक रूष्‍ट लगीं। '' सबलोग आते हैं देखने मगर कोई पैसा देने नहीं आता। कैसे चलेगा हमारा काम। ''

हमने उनकी कुछ मदद तो की, मगर  इस तरह की थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद से काम नहीं चलेगा उनका, हम जानते थे परंतु ज्यादा कुछ तुरन्त कर पाना हमारे लिए भी संभव नहीं था।

पार्वती देवी वहां से उठाकर हमें घर के दूसरे हि‍स्‍से पर ले गईं। वहां देखा कि‍ सोहराई कला को कपड़े पर उतारा जा रहा है। कपड़े की तह लगाकर रंगीन मोटे धागे से सि‍लाई कर वैसी ही आकृति‍ उकेरी जा रही है जैसी दीवारों में है। इसे इधर ‘ लेदरा’ कहते हैं जि‍से बि‍छाने या ओढ़ने के काम में लि‍या जाता है। समझि‍ए कि‍ दोहर का ही एक रूप है।

पार्वती ने बताया कि‍ इसकी मांग है, इसलि‍ए  हमलोग लेदरा में पेंटि‍ग करने लगे हैं। इससे कुछ पैसे की आमदनी हो जाती है। एक तरह से काथा स्‍टि‍च जैसा ही लग रहा था देखने में और सुंदर भी।

देर हो चुकी थी और हमलोगों को रांची वापस भी आना था। हमें लौटने का उपक्रम करते देख पार्वती ने थोड़ी उदासी के साथ कहा कि‍ " हमलोग तो एक बार में ही पूरी आकृति‍ दीवार पर उकेर देते हैं, मगर आने वाली पीढ़ी पता नहीं इसे सहेज पाएगी कि‍ नहीं? अब तो घर भी पक्‍के बनने लगे हैं। कहाँ उकेरेंगे इसे और सीखेगा कौन?

फिर धीमे स्‍वर में कहा - "अबकी आइएगा तो पुराने कपड़े लेते आइएगा। हमारे लेदरा बनाने के काम आएगा।"

जाने दोबारा कब जाना हो, मगर एक कसक लि‍ए हम लौटे कि‍ इतनी सुंदर कला कहीं गुम न हो जाए। यह ठीक है कि‍ इन दि‍नों रेलवे स्‍टेशन, शहर की कई दीवारों, और एयरपोर्ट पर हमें सोहराई पेंटि‍ग दि‍ख रहा है, जो नजरों को खूबसूरत तो लगता ही है और देश-वि‍देश में भी ख्‍यात हो गया है। मगर जब तक इसे रोजगार से नहीं जोड़ा जाएगा, युवा पीढ़ी इसे अपनाएगी नहीं। वॉल पेंटि‍ग से नि‍कालकर सोहराई को कैनवास और कपड़ों पर उतारने के प्रयास में ज्‍यादा ध्‍यान देने की आवश्‍यकता है ताकि मिथिला पेंटिंग की तरह इसका बाजार बन सके।  


5 comments:

Kamini Sinha said...

सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-1-21) को "कैसे बचे यहाँ गौरय्या" (चर्चा अंक-3944) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा



Onkar said...

बहुत सुन्दर

Sudha Devrani said...

सोहराई पेंटिंग के बारे में पहली बार जाना सच में हमारे देश के गाँवों में इसी तरह की अनेक कलाएं हैं जो अब गुम रही हैं सिर्फ़ ख्याति प्राप्त करने से क्या होगा घर चलाने के लिए पैसा चाहिए ....
बहुत सुन्दर ज्ञानवर्धक लेख।

सधु चन्द्र said...

वाह!
बहुत सुन्दर
ज्ञानवर्धक लेख।

Gajendra Bhatt "हृदयेश" said...

सुन्दर, ज्ञानवर्धक लेख!