वो अलगनी से सूखे कपड़े उतार कर ढेर लगाती जा रही थी...अपनी ही सोच में गुम। वो चुपचाप कपड़ों की तह लगा रहा था। जाने कौन सी व्यथा मथ रही थी अंदर-अंदर कि निढाल सी वहीं बैठ गयी। कुछ देर में पाया कि लड़के ने उसकी हथेली के ऊपरी पोरों को अपने हाथों से पकड़ रखा है। ऊँगलियाँ-ऊँगलियों को थामे है ठीक वैसे, जैसे कोई अजनबी आत्मीयता तो दिखाता है मगर इतनी दूरी बरतता है कि हथेलियों का दबाव बस इतना हो कि अपनापन तो लगे मगर अधिकार का अहसास न कराए।
उस स्पर्श में कुछ ऐसा था कि लगा ढहती दीवार को सहारा देकर गिरने से बचाने की कोशिश है।लड़की देखना चाहती थी कि उसके चेहरे पर क्या लिखा है, मगर आँख उठाने की हिम्मत नहीं हुई। कुछ देर बाद मुड़कर देखा, पीछे तहाये गए रंग-बिरंगे कपड़ों का जैसे बाज़ार लगा हो।
दोनों साथ निकलने को क़दम बढ़ाते हैं। लड़की भावना से भरी ज़रा सा क़रीब जाकर सट जाती है, जैसे यह बोध कराना हो कि तुम्हारे होने का अहसास है मुझको। तभी नज़र पड़ती है लड़के के चेहरे पर....ये तो वो नहीं है।कब बदल गया सब कुछ?
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कोई अचानक चला जाता है और उस रिक्त स्थान को हम ख़ाली नहीं मानते। यादों में जीते-मरते हैं रोज़....मगर कोई बहुत आहिस्ते से उस जगह को भर देता है ...और इसका पता बहुत देर में चलता है।
प्रेम फ़ीनिक्स है...
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स्त्री नदी होती है ......
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स्त्री नदी होती है ......
नदी होती हैं सागर भी होती हैं।
ReplyDeleteवाह, बहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह बेहतरीन
ReplyDeletevery beautifully you wrote the feelings of the women
ReplyDeleteदिल को छूता सुंदर अभिव्यक्ति ,सादर
ReplyDeleteस्त्री नदी होती है....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।