झरनों की बात जब होती है, तो हम गर्व से कहते हैं कि झारखंड झरनों का प्रदेश है। यहां छोटे-बड़े इतने झरने हैं, और इतने खूबसूरत, कि बेहद नामचीन फॉल भी इसके आगे पानी भरते नजर आएंगे। हां, यह जरूर है कि पर्यटन के हिसाब से जितनी सुविधाएं होनी चाहिए, वह उपलब्ध नहीं। मगर आप वाकई प्रकृति प्रेमी हैं और सौंदर्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहते हैं तो यहां के सभी फॉल घूमने का आनंद लें, खासकर, हुन्ड्रू, जोन्हा, दशम, लोधा, हिरनी, पंचाघाघ, सीता फॉल आदि......।
फिलहाल आज हुंडरू जलप्रपात के बारे में। इस दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में हम निकल पड़े हुंडरू फॉल के लिए। बता दूं, कि कई बार जा चुकी हूं मगर हर बार उतना ही आनंद आता है। रांची से हुंडरू फाॅल की दूरी करीबन 35 किलाेमीटर की है। इस बार हमलोग सुबह गेतलसूद के रास्ते होते हुए हुंडरू पहुंचे। रांची से ओरमांझी चौक पहुंच कर दाहिनी ओर के रास्ते सीधे चले जाना है। जब हम हुंडरू पहुंचने को थे तो करीब एक किलोमीटर के पहले से ही अंदाज होने लगा कि कितनी भीड़ होगी। कई-कई बस और गाड़ियां खड़ी थी। पिकनिक मनाने वालों की खूब भीड़।
गाड़ी जहां जाकर रूकी, वहां आसपास कई दुकानें थी और अंदर जाने के लिए टैक्स भी जमा किया जा रहा था। अच्छा लगा कि सफाई दिख रही थी चारों तरफ और खाने-पीने के सारे सामान उपलब्ध थे। सरकारी रेस्टूरेंट भी सामने ही था और बांयी तरफ बच्चों के लिए झूले लगे हुए थे। वहीं से जलप्रपात के उस पार जाने के लिए 'जीप लाइन रोप' है, जिसे राेमांच पसंद करने वाले युवा पार कर रहे थे। हमारी तो हिम्मत नहीं हुई। पता चला कि हुंडरू पर्यटन स्थल में इसी वर्ष यानी 15 अगस्त 2019 को झारखंड टूरिज्म डेवलपमेंट कारपोरेशन की तरफ से एडवेंचर टूरिज्म की शुरूआत की गई है और एडवेंचर पार्क, लोरो कोर्स जिप लाइन बनाया गया है। हुंडरू जिपलाइन की लंबाई लगभग 200 मीटर है। पर्यटक जलप्रपात के ऊपरी भाग से स्वर्णरेखा नदी के उस पार जाकर फॉल की खूबसूरती को करीब से देखते हैं।
हमने कुछ देर वहीं ठहरकर नजारा लिया। नीचे पत्थरों के बीच-बीच में पानी जमा हुआ था। आसपास लोग कहीं खाना बना रहे थे तो कुछ गप्पे लड़ा रहा थे। इतनी भीड़ थी कि वहीं ठिठके रह गए हमलोग। वहीं पास में शिवमंदिर है। कहा जाता है कि यहां मन्नतें पूरी होती हैं। इसलिए गांव वाले शुभ कार्य में यहां जरूर आते हैं। हर वर्ष 15 जनवरी को मकर संक्राति का मेला लगता है और उस दिन पशु-बलि भी होती है।
वहां से नीचे जाने के लिए दाहिनी तरफ करीब 748 सीढ़ियां है। हम जहां थे, वहीं से स्वर्णरेखा नदी का पानी नीचे 320 फीट गिरता है और ठहर जाता है तालाब की तरह। इतनी सीढ़िया उतरना और चढना आसान नहीं, इसके लिए वहां लाठी की बिक्री भी खूब होती है। यह जलप्रपात हुंडरू नामक गांव में है इसलिए इसका नाम भी हुंडरू फॉल है। किवंदती है कि हुंडरू नाम का एक अंग्रेज नागमणि की तलाश में इस जगह आया था। इस घने जंगल में कई वर्षों तक तलाशने की बाद भी सफलता हाथ नहीं लगी और अल्पायु में ही उनकी मौत हो गई। उसकी याद में इस जगह का नाम अंग्रेजों ने हुंडरू रख दिया।
जाने इस बात में कितनी सच्चाई है मगर यह प्रमाणित है कि स्वर्णरेखा, जो झारखंड की प्रमुख नदी है, यह नदी नगड़ी गांव में रानी चुआं से निकलती है जो उत्तर-पूर्व की ओर बढ़ती हुई मुख्य पठार छोड़कर प्रपात के रूप में हुंडरू में गिरती है। रांची रेलवे स्टेशन से 45 किलोमीटर दूर अनगड़ा प्रखंड के उत्तर की ओर हुंडरु जलप्रपात स्थित है । हुंडरू जलप्रपात डेढ़ सौ एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है।
यहां तक तो हमने सब देख लिया, मगर इतनी भीड़ देखकर यहां रूकने के बजाय नीचे जाना चुना, ताकि जहां पानी के और पास जाया जा सके। हालांकि हमने सुना था कि यहां प्राचीन बाघ की गुफा है, जहां एक वक्त में दस हजार से ज्यादा लोग अंदर जा सकते हैं।
मगर अभी हमें पत्थर और पानी का संगीत सुनना था। वहां से निकलकर बायीं तरफ से एक रास्ता जाता है, यह वहां घूम रहे पर्यटक मित्रों ने बताया। हम साल पेड़ से घिरे सर्पीले रास्ते से होते हुए नीचे चल पड़े। रास्ते में बिल्कुल भीड़ नहीं थी। एक बार तो लगा कि कहीं रास्ता तो नहीं भटक गए। मगर नहीं...हम सही राह पर थे। सड़क संकरी थी, संभवत: इसलिए यह पर्यटकों की भीड़ से बची हुई है।
हम सिकिदिरी प्रोजेक्ट के बिल्कुल पास थे। पिछले 50 वर्षों से झारखंड राज्य को पनबिजली मिलता आ रहा है यहां से। पिछली बार हमने प्रोजेक्ट के अंदर जाकर सारी प्रकिया से अवगत हुए थे। मगर इस बार बस पानी तक पहुंचना था।
बामुश्किल बीस सीढ़ियांं चढ़कर हम दूसरी ओर उतर गये। दूर से पता नहीं चल रहा था मगर पिकनिक मनाने वाले लोगों की भीड़ यहां भी थी। दूर दुग्ध झरना और चारों ओर फैलता पानी। जगह-जगह पत्थर और उस पर बैठे लोग। हरी-भरी वादियां और धूप के बावजूद ठंड।
सीढ़ियां खत्म होते ही पानी के दोनों ओर लोग नजर आए, खाना बनाते हुए। जलप्रपात तक जाने के लिए हमें हाथ की बनाई लकड़ियों की पुल पार करनी थी। साथ के लोगों के बीच थोड़ी झिझक भी थी अपनी सुरक्षा को लेकर। मगर स्थानीय लोग जो वहां थे, शायद पर्यटक मित्र भी, उन्होंने विश्वास दिलाया कि आराम से पार कर जाइए, कुछ नहीं होगा। नीचे कलकल बहता पानी और ऊपर लकड़ी का हिलता पुल। संभलने के लिए बांस की बल्ली भी बांधी गई थी ताकि लड़खड़ाने पर थामा जा सके। हममें रोमांच भी था और खुशी भी।
ऊंचे-नीचे चट्टानों के बीच जहां समतल स्थान मिल रहा था, लोग दरी-चटाई बिछाकर बैठ रहे थे। हमें भी कुछ दूर जाने पर एक साफ जगह मिली। लकड़ी से बांध कर ऊपर पत्ते लगाकर छप्पर जैसा बना दिया गया था, ताकि तीखी धूप से बचाव हो सके। जमीन बिल्कुल साफ-सुथरी।
अब क्या था...हमने चटाई बिछाई और खाने-पीने का सामान निकाला। दोपहर हो गई थी और हम सबको भूख लग आई थी। हम खा ही रहे थे कि एक आदमी आया और कहने लगा -
'' ये हमारी जमीन है। आप यहां दो घंटे बैठो या दो मिनट, आपको दो सौ देने होंगे।''
हमारी दोस्त अंजली का पारा इतने में चढ़ गया। '' यह आपकी जमीन कैसे हो गई? आपने नदी खरीद ली या यह जमीन कि इसका भाड़ा वसूल रहे हैं ?''
अब वो आदमी मिमयाया...'' हम सफाई करते हैं यहां रोज। आपलोग तो सब गंदा कर के चले जाते हैं। यहां पत्तल, वहां गिलास''
बात सच ही कह रहा था वो। हमारे जैसे लोग वहां जाकर जलप्रपात का आनंद तो लेते हैं, मगर गंदा भी करके चले आते हैं। ऊपर तो सफाई की कुछ व्यवस्था और सरकारी सुविधा कुछ दिखी तो थी, मगर यहां ऐसा कुछ भी नजर नहीं आया। बेशक सफाई और लकड़ियों के पुल की व्यवस्था और यदि कोई दुर्घटना हुई तो सुरक्षा की जिम्मेदारी भी इन्हीं स्थानीय निवासियों की है। अखबारों में पर्यटक मित्र बहाल करने की खबर तो आती है मगर दैनिक मजूदरी 246 रूपये ही है, ऐसा मुझे जानकारी है। इसके अलावा इनके लिए न कोई चिकित्सा सुविधा है न बीमा। अब अगर थोड़ा-बहुत यह पर्यटकों से नहीं लेंगे तो जीविका कैसे चलेगी।
हमने उसे आश्वास्त किया कि उसे सफाई के पैसे दिए बिना हम नहीं जाएंगे, मगर यही बात वो अच्छे से कहते तो भी काम चलता।
हम खाने और कुछ देर सुस्ताने के बाद पानी में जाने तो तैयार थे। ऊपर से गिरता पानी नदी का रूप लेकर चट्टानों के बीच से बह रहा था। ऊंचे चट्टान पर चढ़ना और उतरना रोमांचक होता है। जलप्रपात के करीब काफी गहरा है, मगर लोग नौके या कहिए डोंगे की सवारी कर नजदीक जाते हैं। वहां पानी के छींटे पड़ने का राेमांच अलग ही होता है। मैं पिछली बार गई थी तो नौके से जलप्रपात तक जाकर खूब मजा किया था और तस्वीरें भी ली थी। हम जलप्रपात के बिल्कुल करीब के पत्थरों पर जाकर बैठ गये। हुंडरू जलप्रपात उतना खतरनाक नहीं, इसलिए पर्यटक अक्सर नहाते हैं यहां आकर। बरसात में इन फॉल्स का सौंदर्य बहुत अधिक बढ़ जाता है। पास में गर्मागर्म चाय भी उपलब्ध है और प्रोफेशनल फोटोग्राफर भी जो आपकी इस यात्रा को अविस्मरणीय बनाने के लिए मौजूद रहते हैं।
सामने ऊंचाई से कई धाराओं में गिरता पानी...कलकल का स्वर। पत्थर और पानी की जुगलबंदी कानों से होते हुए हृदय तक उतरती है। अनायास पड़ने वाले पानी के छींटे तन के साथ-साथ आत्मा को भी विभोर कर देती है। देर तक हमलोग वहीं बैठे रहे। संगीत सुनते, हवाओं से बात करते।
शाम ढलने से पहले लौटना भी है। इतनी खूबसूरत जगह में भी न रहने की व्यवस्था है न पीने के पानी की और न ही आवश्यक जरूरतों की। क्या अच्छा होता कि कुछ सुविधाएं सरकार मयस्सर करा देती तो पर्यटन के क्षेत्र में झारखंड का बहुत नाम होता। मगर....
फिलहाल वापस.....वही लकड़ियों के पुल से होकर। स्थानीय कारीगर बांस और लकड़ी को तराशकर फुल, तलवार, चाकू और सुंदर से दिल बनाकर बेचते हैं। कुछ पर्यटक खरीदते हैं तो कुछ देखकर आगे बढ़ जाते हैं। ऊपर चढ़ने के रास्ते एक छोटी सी झोपड़ीनुमा दुकान है जहां चिप्स आदि उपलब्ध हैं। कुछ लकड़ी के गट्ठर भी रखे हैं और चारपाई भी। संभवत: यह उनके अपने उपयोग के लिए है क्योंकि दाम बताने के लिए कोई मौजूद नहीं। कुछ बच्चियां बोतल में पानी भरकर ला रही थी। जाने खुद के लिए या बेचने के लिए, पूछने की इच्छा नहीं हुई।
सूरज का पीला अक्स पानी पर पड़ रहा था। आज बादल भी ऐसे छितराये से थे जैसे खुशी से नाच रहे हों। हमने हुंडरू को अलविदा कहा और वापस रांची की ओर चल पड़े।
3 comments:
अहा । बहुत सुंदर आलेख उत्कृष्ट । नववर्ष की स्नेहिल शुभकामनाएं सादर ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31-12-2019) को "भारत की जयकार" (चर्चा अंक-3566) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर यात्रा वर्णन दी...
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