Tuesday, February 12, 2019

तुम्हें खो देती....



आज फिर तेरी याद आयी...बेतरह आयी...इतनी कि सम्भाली न गयी और आँसुओं से अपना ही दामन तर हो गया।

तू बिछड़ा है तो क़ुसूर मेरा है ना ..तू तो जाने कब से बता रहा था मुझे कि अब मैं रहूँ न रहूँ, तुम्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। हर बार झगड़े के बाद मैं रूठती और फिर मान भी जाती....

दरअसल दूसरे को अपनी नज़र से जस्टिफ़ाई करने की ग़लत आदत जो है। ख़ुद ही सोचती ...तुम्हें बुरा लग रहा होगा ...मेरे बिना उदास होगे ....मेरी राह देखते होगे ...और मैं ख़ुद ही ख़ुद को समझा के पास चली जाती।

ये सच है कि तुम तब मुझे समेट ज़रूर लेते थे..सहलाते थे मेरा आहत स्वाभिमान...मैं सब भूल के साथ हो जाती...सिमट जाती। कभी सोचा नहीं ऐसा कि तुम्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता कोई ...कि तुम नहीं आवाज़ देते ...कि तुम नहीं करवटें बदलते सारी-सारी रात...

कह ही दिया न पहली बार उस रोज़...''यू केन गो'' ....और मैं सच में चली गयी ...ये तीन शब्द कितना असर कर गया मुझ पर।

ना...ये शब्द नहीं थे...तुम्हारी इच्छा थी ..वो चाहत जिसे तुम मेरे बेख़बर प्यार को जताना चाह के भी जता न पाए कभी, वो काम इन शब्दों ने कर दिया ..

आख़िर ये पहली बार कहा था तुमने .. नहीं मानती तो तुम्हें खो देती...

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