बहती रही धार में...जाने कब से। कई बार किनारे की तरफ जाने को सोचा भी....मगर डर लगता रहा...क्या पता डूब ही जाऊं....बेहतर है, बहती चलूं धार के साथ....थपेड़े बर्दाश्त करते-करते आदत हो गई।
कभी-कभी जब सम पर होता सब कुछ तो कितना सुकून मिलता है।लगता है इससे बड़ा सुख और कुछ नहीं। जो मिल रहा...उससे ज्यादा जिंदगी मुझे नहीं देने वाली। समेट लूं..सहेज लूं....
अकेलापन से बड़ा दुख कोई और नहीं...कोई न जाए मेरे पास से....मैं न जाऊं कहीं दूर....नित यही प्रार्थना करती रही ईश से। मैं बचाना चाहती थी...तुम्हें...खुद को....अपने रिश्ते को..और सबसे बढ़कर प्रेम को....
मगर नष्ट हो रहा था सब...धीरे-धीरे...महसूस करती कई बार..मगर खुद को भुलावे में रखती...न...कुछ नहीं खो रहा..जो है, जैसा था..;वैसा है।
तुम साथ थे...प्रेम छूट रहा था...नष्ट हो रहा था। मैं बार-बार सहेजती..मरम्मत करती। मगर कहां हो पाता है ऐसा...साथ रहते भी साथ छूटता जाता है...इस बात को समझने में कई बरस लग गए। हर गुजरता दिन..हर गुजरती रात एक बार जरूर महसूस कराती इस बात का, कि प्रेम भी छीजता है।
तुम्हें खोकर प्रेम बचाना चाहती हूं...अब धार में बहते रहने का कोई अर्थ नहीं...खुद को किनारे न लगा पाई तो सब नष्ट हो जाएगा....
प्रेम सहेजने की चीज है....कि इंसान रहे न रहे..प्रेम बचा रहे थोड़ा ...;
Waah
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