नहीं, बिल्कुल नहीं भीगी थी
बारिश की फुहारों में
मगर
पसलियों में अकड़न है
ऐंठ रही पिंडलियां
ताप बढ़ता ही जाता है
फूलदान में सजे रजनीगंधा से
कोई ख़ुशबू नहीं आती
बेस्वाद है सब
बड़बड़ाहट तेज़ हुई जा रही
हाँ, नहीं जी सकती तुम्हारे बिना
भूलना असम्भव है
पास आओ, रख दो माथे पर हाथ
कहीं धुनिया धुनक रहा रुई
आसमान से बर्फ़ के फ़ाहे गिर रहे
देखो
तुम हो ना, तुम जानते हो न
कितना कुछ बदल जाएगा
तुम्हारे न होने से
आदत, ज़रूरत, सपने और
गहरी नींद सोने के लिए चाहिए
तुम्हारे बदन से उठती पहचानी ख़ुशबू
सुला दो अब, मान भी जाओ
तुम्हारी क़सम, जब से मना किया
नहीं भीगी हूँ बौछारों में
बस ज़रा सी हरारत है, परेशान ना हो
सो जाऊँ , रख दूँ सीने पर सर
ओह, ये वो गंध नहीं
तुम्हारी देहगंध नहीं
जाने दो अब, कोई बुलाता है
आँखें झपकी जा रही
पहचान पा रही हूँ अच्छे से
चिरप्रतिक्षित, यह तो मृत्युगंध है।
No comments:
Post a Comment
अगर आपने अपनी ओर से प्रतिक्रिया पब्लिश कर दी है तो थोड़ा इंतज़ार करें। आपकी प्रतिक्रिया इस ब्लॉग पर ज़रूर देखने को मिलेगी।