दुःख उलीचती रही
प्रतिदिन
अँजुरी भर-भर
सागर उफनता रहा
दुःख बढ़ता गया
संबंध
टूटने और जुड़ने के बीच
उभरती, सिहरती पीड़ा
सघन होती गई
दर्द हैं, अपेक्षाएँ हैं
फिर
निपट सूनी ज़िंदगी
गरम दिन में
छांव तलाशती सी
कि कोई हवा सा
आता-जाता रहा
आया समझ
दुःख सागर है
निस्पृह होना ज़रूरी
कँवल पत्ते पर
ठहरी बूँद की तरह
कि रिश्ते मोह के
कच्चे धागे हैं...।
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