Tuesday, May 8, 2018

फेंक दि‍ए अनचाहे शब्द.....




उलझकर रह जा रही इन दिनों
बातें ही बातें हैं
इसकी-उसकी, जाने किस-किस की 
लोग कहते चले जा रहे 
सुनती हूँ शब्द उनके 
अर्थ सीधा निकलकर आता है
मगर समझती हूँ वही, जो ख़ुद
सुनना चाहती हूँ
नकार देती हूँ अनचाहे शब्दों को
बीन कर फेंक देती हूँ
वो काले शब्द जो वाक्य में
अखरते हैं
और धान से भूसा अलग करने सा
बातों को सूप से फटककर
सफ़ेद और सुंदर कहन को
सहेज लेती हूँ मन के भंडार में
सोचती हूँ
कितना साफ़ और सुंदर है
सब मेरे आसपास
देखो तो, प्यार में डूबे लोग हैं
क्या हुआ जो सबकी अभिव्यक्ति का
तरीक़ा अलग-अलग है।

3 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जीवन का गणित - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.05.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2966 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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