Friday, May 11, 2018

छांव-छांव कहाँ चलता है कोई ...


अपने हिस्से का रो लिया
चुप के,छुप के
समझा लिया ख़ुद को
कि कहावतें यूँ ही नहीं बनती
जीवन का अनुभव होता है इनमें
समझते थे
जो दिल में रहते हैं
वो कहीं भी रहे, दूर नहीं होते
मगर ऐसे तो नहीं कहा होगा
किसी पुरखे ने
कि 'आँखों से ओझल तो दिल से दूर'
यह बात
माई समझती है सबकी
इसलिए ना बिटवा को
भेजना चाहती है बिदेस
ना बिटिया का ब्याह
करना चाहती दूर देस
बाबू से कहती रही
बिटिया आँखों के आगे रहे तो
जी में संतोष रहेगा
बिटिया सोचती
ख़ून के रिश्ते का दूरी से क्या जोड़
माई बेवजह चिन्ता करती है।
और मन का रिश्ता
यह तो आत्मा से आत्मा का गठबंधन है
एक बार जिया में समाने वाले का
जिया जुड़ा ही रहता है
लड़कियाँ तो अबोध होती ही है
परदेशी की प्रीत को
कहाँ समझ पाई कभी
ना समझ पाई दादू की दुहरायी बात
कि
'प्रेम और पानी अपने गाँव का ही भला'
कौन निभाता है रिश्ता
एक बखत के बाद
रंग उड़ ही जाता है रंगरेज की
सतरंगी चुनरिया का
समय की धूप बड़ी तीखी होती है
छांव-छांव कहाँ चलता है कोई
एक दिन देखते-देखते
प्रेम का पंछी दूर गगन में
उड़ जाता है, बस उड़ जाता है ....।

4 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 13 मई 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत सुंदर रचना, बार बार पढ़ने को मजबूर करती हर पंक्ति। सादर, सस्नेह बधाई सार्थक रचना हेतु।

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  3. लाजवाब गहरा सन्देश लिए कमल की रचना ...

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