Sunday, March 4, 2018

मुखौटा



बेहद बेचैन होता है
मन
और जब
वक्‍त कठि‍न होता है
भागती-फि‍रती हूं
उन सवालों से
जो कि‍सी इंसान की
चीर-फाड़ को आतुर होता है

मन मेें बसी छवि‍ को
नकारता है जब जेहन
तो सब पि‍छला
कि‍ताब के पृष्‍ठों सा
फड़फड़ाता हुआ
पलटता चला जाता है

हम देखते हैं
चीजों को, बातों को
नए दृष्‍टि‍कोण से
और खुुुद की तरफ ही
आश्‍चर्यचकि‍त हो देखते हैं
कि‍ हमारी समझ पर
परदा कैसे डाल देता है कोई

बरसों बरस
साथ रहने वाले
इतने अजनबी नि‍कलेंगे
ये कभी सोचा नहीं था
सच हैै, आदमी का चेहरा
न हृदय की कलुषता बताता है
न औकात

मुखौटे पहनने वाले
जब कभी
गलती से असली चेहरा
दि‍खा जाते हैं
तो बाद आत्‍ममंथन के
मन कहता है

यकीन बड़ा कीमती शब्‍द है
इसे सब पर
इस्‍तेमाल नहीं कि‍या जा सकता
तो अब जब भी
कोई लगे अपना, परख लेना उसे
कि‍ हंसमुख इंसान के पीछे
कोई लोमड़ी सा चालाक
तो नहीं छुपा बैठा ।

3 comments:

  1. खुद से भी कई बार करने होते हैं प्रश्न ...
    खुद के क्षणिक समझ कई बार हावी हो जाती है ...

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  2. क्या बात है बेहद उम्दा रचना...वाह्ह्ह👌👌

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