उस बार होली में खूब शरारत हुई....भांग वाली मिठाई खा ली। लोग होली के अवसर पर भांग के पेड़े खाते थे तो कोई ठंडई के ग्लास पर ग्लास उड़ेलता तो कोई हरी बरफी के डब्बे खत्म कर देता। हमलोग हमेशा देखते मगर कभी खाने की हिम्मत नहीं की। कई बार धोखे से खिलाने की कोशिश की गई, मगर कामयाब हो नहीं पाई साजिश। उस बार किस्मत ने साथ नहीं दिया।
बोर्ड की परीक्षाएं हो गई थीं। मन वैसे भी हल्का सा था। दिन में रंग खेलते समय सब जुटे। पड़ोस में एक दीदी की नई-नई शादी हुई थी। इधर रिवाज है कि पहली होली मायके में मनती है तो दीदी जीजाजी सहित आ गई। हम भी उत्साह से लबरेज कि जीजाजी को एेसा रंगना है कि वो पूरी जिंदगी न भूले अपनी पहली होली।
पूरा ग्रुप बना लड़कियां का। छोटी-बड़ी मिलाकर आठ दस तो हो ही गई। घेरा डालने के ख्याल से उनके घर पहुंचे। दीदी तो हमें देखकर छुप गईं और हम जीजाजी के पास गए। सबसे पहले जाकर उनके पैर छुए। बोला हमारे यहां रिवाज नहीं है रंगों का। आप बड़े हैं, सो होली का प्रणाम स्वीकार कीजिए। और हमारे तरफ से पान खाइए।
अब जीजाजी जरा असमंजस में दिखे। नई जगह, नए रिवाज। सोचा, शायद यही परंपरा हो यहां की। हमारे पास कोई रंग नहीं था। हमने रंग घर के बाहर बाल्टी में रख छोड़े थे। सूखे और गीले दोनों। इरादा यही था कि बातों में उलझाकर उनको बाहर ले आएंगे। फिर बाहर होगा धमाल। क्योंकि घर के अंदर रंग खेलने से डांट पड़ने का डर था। मगर इतने सीधे भी हम नहीं थे। सबसे पहले तो पान के अंदर खूब सारा हरा रंग डाल कर लाए थे कि जीजाजी पान खाएंगे तो मुंह की हालत देखने लायक होगी।
तो हमारे धोखे में आ गए जीजाजी। जैसे ही पान मुंह में डालकर चबाना शुरू किया कि .....सारा माजरा समझ आ गया उनको। इधर हमलोग हंसी के मारे पेट पकड़-पकड कर दुहरे होने लगे। जीजाजी को शर्म आई कि छोटी बच्चियों ने हमें मूर्ख बना दिया, सो हमें दौड़ाना शुरू किया। हमलोग बाहर की ओर भागे जहां अपना रंग छुपाया था। वो भी समझ गए। हमलोगों की संख्या ज्यादा थी तो कोई बाल्टी उठाया हाथ में तो कोई रंग। अब चारों तरफ से बौछार होने लगी रंगों की। वो अकेले पड़े तो बौखला उठे। हमारा ही रंग छीनकर हम पर उड़ेलना शुरू किया। अब हम उनके सामने कमजाेर पड़ने लगे। बाकी लोग तो छिटक गई मैं और मेरी सहेली मनु उनकी गिरफ्त में आ गए। उन्होंने बड़ी बुरी तरह खेली होली। रंग तो रंग बाहर डब्बे में जला हुआ मोबिल पड़ा था, उसे भी उलट दिया। सब मना करते रहे मगर माने नहीं।
अब हमें रोना आने लगा। सारे बाल और चेहरे पर मोबिल की चिपचिप। अब पीछा छुटाकर घर भागने को हम बेकरार हो गए। मगर वो ऐसे आदमी कि दोनों हाथों में हम दोनों सहेलियों की कलाईयां कसे रहे और दीदी को बोला- सालियों का मुंह मीठा करवाना है, जो मैं लेकर आया हूं वो स्पेशल मिठाई लाओ। हम नहीं खाएंगे-खाएंगे करते रहे मगर कोई माने तब न। जबरदस्ती हमारे मुंह में ठूंस दी गई दो- दो बरफी। बड़ा गंदा सा स्वाद लगा। हमने बात भी की इस बारे में। लगा, रंग मुंह में जाने के कारण बेस्वाद लगी मिठाई।
अब हम दोनों सखियां तीर की निकल भागी जीजाजी के हाथों के कमान से। घर पहुंचकर नहाने में जो दुर्गति हुई कि नहीं भूलती। मिट्टी तेल से माेबिल हटाना पड़ा। केश झाड़ू जैसे हो गए और त्वचा ऐसी जैसे ईंट से रगड़ी गई हो। मां की डांट अलग मिली।
नहाकर कुछ खाया और मंदिर की तरफ भागे। हमारे गपबाजी का अड्डा वही था। जब एक दूसरे का दर्द बतियाने लगे हम तो महसूस हुआ कुछ गड़बड़ है। सर चकराने लगा। उबकाई सी महसूस हुई। मनु की हालत वही थी। अब हमें समझ आया कि जीजाजी ने भंग की मिठाई खिला दी। अब क्या करे......शाम में मिलते हैं कहकर दोनों अपने-अपने घर की ओर भागे।
पापा रसोई में थे। मां कई तरह के व्यंजन बनाने में लगी हुई थी। होली में सभी लोग एक दूसरे के घर जाते थे। कोई ऐसा घर नहीं होता जहां सारे लोग अबीर कर टीका लगाने नहीं जाते। मां तो कल से लगी हुई थी रसोई में। पापा को चाय की तलब हुई। मुझे देखकर खुश हुए और बोले, आ... बेटा एक कप चाय बनाओ। मैंने बरतन उठाया। दूध निकालने लगी कि हाथ कांपने लगे। छूट गया हाथ से बरतन । अब मां पापा घबराए कि बात क्या है तो बतानी पड़ी सारी बातें।। मां बोली ...हो गई होली । जाओ कमरे में जाकर सो जाओ।
लड़खड़ाते कदमों से अपने कमरे की ओर चले। अजीब आफत। दोनों हाथ हवा में उठ जाए। नीचे करूं तो फिर वही। जैसे हवा में उड़ रही हूं। मन ही मन गाली दी उस नए जीजा को और कसम खाई कि जीजाजी नामक प्राणी से सदा की दूरी बना ली जाए। अब समस्या यह थी कि अपने उग आए पंख यानी दोनों हाथों को काबू में कैसे रखूं। घर में सबको पता चल गया। तमाशा देखने भाई बहन इकट्ठे हो गए। सब कुछ सामने दिखता, मगर लगता कोई फिल्म चल रही हो।
होश बेकाबू....पर होश में रहने की कोशिश.....रंग का समय तो बीत गया। जाकर पड़ गई बिस्तर में। हल्की सी याद है मां ने इमली पानी घोलकर पिलाया था नशा उतारने को। मगर कोई फायदा नहीं हुआ। जाने कब तक सोई रही। मनु ने आकर उठाया। मेरी नींद खुली और उल्टियां शुरू हुई । हम दोनों उस घड़ी को काेसते रहे कि मिठाई क्यों खाई। हम भाग क्यों नहीं पाए। मनु को कम असर हुआ था भांग का पर मुझे ज्यादा था। उसने वादा किया कि हम आज की शाम साथ ही रहेंगे और किसी के घर नहीं जाएंगे।
सांझ हुई। बाहर फगुआ के गीत गाए जा रहे थे ढोलक की थाप भी थी और सबका आना-जाना शुरू। सारी सखियां आईं घर। उस दिन हम सब सहेलियां मिलकर एक दूसरे के घर जाते थे अबीर गुलाल लगाने। इस वक्त रंग कोई नहीं छूता। सारी मस्ती गुलाल की। सहेलियाें के अलावा भी सभी बड़ों के पैर छूने की परंपरा थी।
मैं बेसुध पहले ही थी। वहीं खटिया पर पड़ गए मैं और मनु....बाकी लोग हमें घेरकर बैठे....जाने कितनी देर यूं ही गुजर गए। मुझे फिर कुछ याद नहीं। शायद मेरी आंख लग गई थी। हल्की सी याद है। कोई मेरे माथे पर हौले-हौले सहला रहा था। मुझे अच्छा लग रहा था। एक आत्मीय स्पर्श। सुकून। जाने कितना वक्त गुजरा था। कौन आया, कौन गया...कुछ पता नहीं। याद है किसी ने मेरे कानों में थे कहा था - अपना ख्याल रखना। कौन था ये तो याद नहीं। होली तो हर बरस आती है.......वो दिन नहीं लौटते अब।
1 मार्च 2018 को 'दैनिक भास्कर' में प्रकाशित
1 मार्च 2018 को 'दैनिक भास्कर' में प्रकाशित
मजेदार संस्मरण !
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