Wednesday, March 21, 2018

आ जाओ गौरैया


एक दि‍न पहले साल में रसम की तरह फि‍र से गाैरैया दि‍वस की के तौर पर गायब होते प्‍यारे पक्षी गौरैया के लि‍ए फि‍क्र जता ली गई। इसके बाद अब हम सब अपनी-अपनी रोजमर्रा की जि‍ंदगी को सुवि‍धाजनक बनाने में लग जाएंगे। उसमें गौरैया की याद भी शायद नहीं हो। 

पि‍छले दि‍नों मैं नानी के गांव गई । शहरों में रोज बदलाव हो रहा हैं। बड़ी-बड़ी इमारतों की सैकड़ों-हजारों की आबादी के लि‍ए कमरे हैं, दरवाजे-खि‍ड़कि‍यां हैं, बालकनी भी है। बच्‍चों के खेलने-कूदने और बड़ों के टहलने के लि‍ए सामूहि‍क पार्क है। लेकि‍न जि‍से हमारे यहां घर के रूप में जानते हैं, उसके लि‍ए आंगन और खुली जगह के नाम पर कुछ नहीं है। यों अब तो गांव भी बहुत तेजी से बदलने लगे हैं। लेकि‍न संयोग से नानी के घर पहले की तरह अब भी आंगन है। हल्‍की ठंढ थी तो मैं और मामी आंगन में बैठ कर वहीं बातें करने लगे। पास में एक परात में पानी भरकर रखा हुआ था। कुछ देर में चार गौरैया आई और उस पानी में नहाने लगी। बि‍ल्‍कुल हमारे पास। मैं बेहद खुश होकर उन्‍हें देखती रही। उस वक्‍त कैमरा नहीं था मेरे पास और मोबाइल भी दूर रखा था। मुझे लगा, उठूंगी तो ये भाग जाएंगी। फि‍र इन्‍हें नहाते देखने का सुख भी जाता रहेगा।

वो दोनों मजे से देर तक नहाती रहीं। फि‍र बाहर नि‍कलकर बदन झाड़ा आैर आंगन में गि‍रा दाना चुगने लगी। मैंने पूछा मामी से - गौरैया रोज आती हैं क्‍या?  मामी बोलीं- इनको आदत हो गई है यहां रहने की। अपने मन से आती-जाती रहती है। मैं चावल चुनती हूं तो मेरे पैरों के पास से दाना चुनकर खाती है। भागती नहीं। बड़ा अच्‍छा लगता है इन्‍हें अपने आस-पास पाकर। अपने बच्‍चों सी होती है गौरैया। इनके होने से घर भरा-भरा लगता है। 
मुझे बेहद अच्‍छा लगा देख-जानकर , दरअसल,  इन दि‍नों मेरे घर की छत पर गौरया नहीं उतरती। हां, बहुत सारे कबूतर और कौवे आते हैं, गौरैयों ने आना छोड़ दि‍या। हालांकि‍ मैं रोज दाना-पानी देती हूं हर सुबह। छत पर जाते ही सैकड़ों कबूतर उतरते हैं मगर गौरैया नहीं। 

ध्‍यान आया कि‍ वाकई अब गौरेयों की संख्‍या काफी कम हाे गई है, इसलि‍ए गौरैया को 'रेड लि‍स्‍ट' में डाला गया है और प्रत्‍येक वर्ष 20 मार्च को 'वि‍श्‍व गौरैया दि‍वस' मनाया जाने लगा है। लेकि‍न अफसोस है कि‍ इस एक दि‍न के बाद गौरैयों के सवाल को एक तरह से भुला दि‍या जाता है। जबि‍क हमारे साथ गौरैयों का जो जीवन रहा है, उसके नाते यह हमें हमेशा याद रखने की जरूरत है। 
 पक्षी वि‍ज्ञानी का कहना है कि‍ गौरैये की आबादी में  साठ से अस्‍सी फीसदी की कमी आई है। अगर हमें यह आंकड़ा न भी पता हो तो अपने आसपास देखकर जान लेंगे कि‍ नहीं दि‍खती हैं अब घर-आंगन में रोज चहचहाने वाली गौरैया। अगर इनके संरक्षण के सही प्रयास नहीं कि‍ए गए तो गौरैया बीते कल की बात हो जाएगी। वैसे भी शहरी बच्‍चों को तो नजर नहीं ही आती है गौरैया। गांव में भी कमी हुई है गौरैयों की संख्‍या में। बीते कल की बात करें तो हरेक घर-आंगन में आती थी गौरैया। कई घरों में घोसलें बनाकर रहती थी। 
वि‍ज्ञान और वि‍कास ने हमारे सामने नई समस्‍याएं भी उत्‍पन्‍न की हैं। पक्‍के घरों ने उनके घोंसले छीन लि‍ए तो तेजी से कटते पेड़-पौधे ने गौरैयों का ठि‍काना नहीं रहने दि‍या। कीटनाशकों के इस्‍तेमाल ने गौरैयों के खाने के अनाज में कमी कर दी तो मोबाईल फोन और टॉवरों की सूक्ष्‍म तरंगों ने इनके जीवन पर ही प्रश्‍नचि‍न्‍ह लगा दि‍या।  यह समस्‍या केवल हमारे देश की नहीं, पूरे वि‍श्‍व में संकट है और हमें मि‍लकर गौरैयों को बचाना होगा। 
बेशक, अब लोग थोड़े जागरूक हुए हैं और इन्‍हें बचाने के लि‍ए अभि‍यान भी शुरू हो गए हैं। कई गैर सरकारी संस्‍थानें अपने क्षेत्र में मुहि‍म चला रही है। मगर जब तक हम खुद जागरूक नहीं होंगे, इन अभि‍यानों का कुछ ठोस हसाि‍ल नहीं होगा। हमें यह महसूस करने की जरूरत है कि‍ प्रकृति‍ से हमारे देखते-देखते एक ऐसा जीव गायब होने की कगार में है जो हमारे बीच का है और बेहद प्रि‍य रहा है। हमारी बुजुर्ग पीढि‍यां हमें सि‍खाती थी कि‍ घर में गौरैया का बसना इस बात का सूचक है कि‍ हमारे पास धन-धान्‍य की कमी नहीं। हम परंपरा और संस्‍कृति‍ से जुड़ी बात कहते हैं, अपने बच्‍चों को ऐसे सि‍खाते हैं तो वह तीव्र असर करती है। इसलि‍ए दशक भर पहले के बच्‍चे या बड़े, कभी घोंसले को नहीं उजाड़ते थे। 

हमें वापस बुलाना होगा हमें गौरैया को। अपने घर-आंगन में थोड़ी जगह देनी होगी और सुरक्षा का ध्‍यान रखना होगा। दाना-पानी के साथ प्राकृति‍क वातावरण भी देना होगा। गौरैया मनुष्‍य की हमसफर रही है। इनकी चहचहाहट से हमारा घर, आंगन, छत और मन गुलजार रहे, इससे ज्‍यादा खूबसूरत बात क्‍या होगी। 


दि‍नांक 21 मार्च 2018 को जनसत्‍ता के ' दुनि‍या मेंरे आगे' कॉलम में प्रकाशि‍त। 

3 comments:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, हमेशा परफॉरमेंस देखी जाती है पोज़िशन नहीं “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Anita said...

समसामयिक लेख..हमारे बगीचे में आती हैं गौरैया अब भी...हाँ कबूतर,मैना और कौए की तुलना में बहुत कम..

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बेहतरीन आलेख....