विकास के नाम पर महानगरों से होड़ करते नगर कई साल पहले ही दिखने लगे थे। फ्लैट और मॉल कल्चर अब नगरों के लिए सामान्य बात हो चुकी है। पर इन दिनों जो सुखद बदलाव देखने को मिल रहा है वह यह कि नगर के युवाओं में भी स्त्री सशक्तीकरण की छटपटाहट दिखने लगी है। सोचने-समझने और समाज को देखने का नजरिया बदल रहा है।
हाल ही में झारखंड की राजधानी रांची में मेरी मुलाकात नई उम्र की नई पौध से हुई। कॉलेज में पढ़ने वाली लड़कियां केवल बातें ही कहती-सुनती नहीं, उसे करने का हौसला भी रखती हैं। मैं कुछ ऐसी छात्राओं से मिली, जो कॉलेज के अन्य छात्रों के साथ मिलकर कैंपेन चला रही हैं लड़कियों में जागरूकता लाने की। वो लोग गांव की महिलाओं को पैड और पीरियड के बारे में जागरूक कर रही हैं। उन्हें स्वास्थ्य के प्रति सचेत करती हैं और बताती हैं कि पीरियड या मासिक धर्म कोई ऐसी चीज नहीं जिससे घृणा की जाए। अगर पीरियड न हो तो महिला बच्चा पैदा नहीं कर सकती। यह प्राकृतिक प्रक्रिया है।
मेरे लिए यह जानना बेहद सुखद था कि गांव-गाव में अलख जगाती इस टीम में लड़के भी हैं, जो गांवों में पैड के इस्तेमाल के लिए जागरूकता पैदा कर रहे हैं। ये लोग आसपास के लोगों और परिचितों से पैड्स मांगकर इकट्ठा करते हैं, आपस में पैसा जमा कर नए पैड्स खरीदते हैं। फिर गांवों तक पहुंच कर उसे बांटते हैं। उनमें जागरूकता लाने के लिए नुक्कड़ नाटक भी करते हैं, जिसमें शरीर के बारे में बताने की कोशिश करते हैं।
फिलहाल इस काम के लिए इन्होंने गुमला से बहुत अंदर जाकर बसे दो गांवों को चुना है ये दोनों गांव विकास की रोशनी से अछूते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि अब भी गुमला और आसपास का क्षेत्र नक्सल प्रभावित माना जाता है। फिर भी, नई पीढ़ी की इन बच्चियों में इतनी हिम्मत है कि वे अपने काम को अंजाम देने से जरा भी नहीं हिचक नहीं रहीं, बल्कि पीरियड जैसे वर्जित, छुपा कर बात करने की इस इलाके की परंपरा तोड़ कर खुली चर्चा कर रहीहैं।
यह सुखद बदलाव है। धीरे-धीरे ही सही हमारा समाज बदल रहा है। सशक्त हो रही हैं महिलाएं। कुछ कर गुजरने का हौसला है और समाज से आंख मिलाने की ताकत। वरना दशक भर पहले माहवारी जैसी बातें इतने धीमे स्वर में की जाती थीं कि यह सब पुरुषों को पता न चले। अपना दर्द सहकर भी मुस्कान सजाए रखने की आदत हो गई थी औरतों को। चाहे वो घरेलू महिला हो या कामकाजी। हालांकि इन बच्चों की राह आसान नहीं। शहर की बात अलग है मगर गांव के लोगों की मानसिकता इतनी जल्दी बदल नहीं सकती। ऊपर से प्रयोग किया कपड़ा यहां-वहां नहीं फेंकने की हिदायत बुजुर्ग महिलाओं द्वारा दी जाती रही है क्योंकि इसके साथ जादू-टोना भी जोड़ दिया गया है।
मान सकते हैं कि हमारी सामाजिक व्यवस्था संक्रमण काल में है। ऐसी विषयों पर फिल्में बनाई जा रही हैं, जो कुछ साल पहले सोच भी नहीं सकते थे। मगर बात यहां लड़कियों के अंदर उपजे 'स्पार्क' की है जो उन्हें कुछ अलग हट कर करने को प्रेरित कर रहा है। पढ़ाई और खुद के पहनावे को लेकर घर या बाहर वालों से उलझना कोई बड़ी बात नहीं। ठीक इसके पहले वाली पीढ़ी यह काम करती आई है। अब की लड़कियां समाज बदलने के लिए लड़ रही हैं। इसका अप्रत्यक्ष संदेश यह है कि हमारे घर के लोगों की मानसिकता में परिवर्तन आ चुका है। जो बंदिशें हैं, वह समाज के डर से है। बहुत जल्दी यह सब बंदिशें और वर्जनाएं टूटेंगी और महिलाओं को भीएक सामान्य पुरूष इंसान की तरह देखना शुरू करेगा।
यूं स्त्री उत्थान के संदेश के साथ इस साल का महिला दिवस गुजर गया। मगर उम्मीद है कि आगे बंटवारा स्त्री-पुरूष में नहीं होगा और नि:संदेह हमलोग अब वास्तविक सामाजिक परिवर्तन की ओर आगे बढ़ेंगे। मेरे लिए यह जानना बेहद सुखद था कि एक महिला शरीर के प्राकृतिक चक्र को लेकर समाज में जो अंधविश्वास और दुराग्रह फैले थे और माहवारी के दौरान कई बार महिलाओं को बेहद उपेक्षित और अपमानित करने वाली स्थिति से गुजरना पड़ता था, उस पर नई दृष्टि से सोचने-समझने और बात करने के लिए लोग सहज हो रहे हैं। अगर इसकी दिशा सकारात्मक रहती है तो आने वाले दिनों में स्त्री का जीवन थोड़ा आसान होगा।
9 मार्च 2018 को जनसत्ता के 'दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित'
जय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 13/03/2018 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।