Wednesday, February 28, 2018

इस बार खेलें बचपन वाली होली .....


कोई आज ये कहे आपको....होली आ रही है। क्­या इरादा है इस बार। आप गहरी सांस लेंगे और बोलेंगे...भई, अब कौन खेलता है पहले सी होली। लोगों से मि­लना-जुलना होगा, अबीर लगा लेंगे। हो जाएगी होली। इस जवाब के साथ ही दीर्घ श्­वांस लेकर कहेंगे आप...होली तो हमारे जमाने में होती थी। असल फगुआ का जो आनंद हमने उठाया है, वह आज की पीढ़ी क्­या जाने। तैर गया न आपकी आंखों में भी आपका बचपन। 

कोई ऐसा इंसान नहीं होगा जो रंगों के त्­योहार होली के नाम से अपने बचपन को आंखों में उतार नहीं लाता। होली और बचपन का अनूठा संगम है। यह सत्­य है कि­ जि­तना आनंद बच्­चों को होली में आता है, वह उम्र बढ़ने के साथ-साथ कम होता जाता है। और आधुनि­क समाज के आत्­मकेंद्रि­त लोग, फ्लैट संस्­कृति­ वाले होली तो मनाते हैं, मगर वो धमाल नहीं होता बचपन वाला। 

होली, टेसू से बने रंगों की होली, लाल-हरे-पीले रंगों की होली, कीचड़ की होली। गली-गली घूमती युवाओं की टोली। कभी होंठों पर गाली तो कभी खेलते कपड़े फाड़ के होली। यह थी झारखंड-बि­हार की होली, जो अब कहीं खो सी गई है।  फागुन के चढ़ते ही होली की उमंग अपने परवान पर होती थी। चारों तरफ गलि­यों में जोगीरा स र र र र र की धुन के साथ-साथ्­ा 'काला-पीला हरा-गुलाबी, कच्­चा पक्­का रंग' और 'रंग बरसे' जैसे फि­ल्­मी गानों की धुन में लोग पागल से हो जाते थे। 

सबसे पहले होलिका दहन की तैयारी होती थी। वो भी पूरे जोश के साथ। झारखंड-बि­हार के गांवों में चलन था कि­ प्रत्­येक घर से लकड़ी मांग कर इकट्ठा कि­या जाता था और शाम को लग्­न अनुसार होलि­का दहन आयोजि­त होता था। गांव के सभी युवक ढोल-मजीरे के साथ गली-गली गीत गाते घूमते थे - सत लकड़ी दे सत कोयला दे। और प्रत्­येक घर से गृहि­णी बाहर आकर उन युवकों को सात लकड़ी देती थी। तब गैस चूल्­हा नहीं आया था। हर घर में लकड़ी के चूल्­हे में खाना बनता। लोग खुशी-खुशी होली की तैयारी करते। युवक कई बार शरारत भी करते थे। 

सप्­ताह भर से शाम को मंदि­र में लोग एकत्र होकर फगुआ गाते । वो लंबी तान छिड़ती कि­ महि­लाएं खि­ड़की से कान लगा मजा लेने से खुद को न रोक पाती। बड़ा मजेदार दि­न-रात होता था तब। दूसरे दि­न सुबह से होली का जो रंग चढ़ता कि­ पूछि­ए मत। बच्­चे-बड़े सब सराबोर। भंग और ठंडई का दौर पर दौर चलता। क्­या छोटा क्­या बड़ा। देवर-भाभी, जीजा-साली तो इस दि­न का इंतजार कब से करते थे और महीनों तक फगुआहट की मुस्­कराहट होंठो में दबाए रहते। खूब-खूब रंग खेला जाता। यहां तक कि­ मि­ट्टी-कीचड़, मोबि­ल तक का इस्­तेमाल करते लोग। घर में छुपने वालों को घर से खींचकर नि­काला जाता और फि­र....... उफ...जो दुर्गति­ होती कि­ पूछि­ए मत। लोग उन्­मत हो जाते। थक-थक जाते। फि­र ये रंगों का खेला दोपहर ढलते तक समाप्­त हो जाता। सब लोग वापस घर में नहाते-खाते और शाम की तैयारी फि­र शुरू। 

शाम यानी गुलाल का समय....छोटों को आर्शीवाद देने और हम उम्र से गले मि­लने का वक्­त। लोग नए कपड़े पहनकर एक-दूसरे के घर जाते। बड़ों के पांव पर गुलाल लगाते।  तरह-तरह के व्­यंजन सबके घरों में बनते। तब कानफाड़ू लाउडस्­पीकर में बजता-' बड़ो घर के बेटी लोग' और 'आज न छोड़ेंगे.....खेलेंगे हम होली',, सुनकर लोग नाराज नहीं होते- मंद-मंद मुस्­कराकर आनंद लेते थे। 

मगर अब न वो रंग रहा न उत्­साह। न अब वो भाईचारा है न उमंग। लोग होली को पानी की बर्बादी मानते हैं। आज की नई पीढ़ी ई होली खेलने में वि­श्­वास करने लगी है। लोग मेल, फेसबुक, व्­हाटसएप, इंस्­टाग्राम आदि­ में होली की शुभकामनाएं भेजकर सोचते हैं कि­ होली मना ली। अब कोई कि­सी रंग से डरने वाले को घर से घसीटकर बाहर नहीं लाता। हजार ना-ना के बाद भी बि­ना रंगाए कोई नहीं छुटता था। लोग अपने मनमुटाव  इसी दि­न दूर करते। कोई अनजाना नहीं होता होली के दि­न। खींच-तान और रंग लगाने के चक्­कर में  लोगों के मन का मैल कैसेे धुल जाता था, कि­सी को पता नहीं चलता था। 

कि­तना बदल गए हैं हम। त्­योहार के नाम पर रस्­म नि­भाने के लि­ए होली मि­लन समारोह कर पर्व की खानापूर्ति की जाती है। लोग नि­यत समय पर एक जगह एकत्र होते हैं और एक-दूसरे को गुलाल लगा देते है। इसमें वो उमंग और उत्­साह नहीं जो घर के आंगन में बाल्­टी भर-भर कर उड़ेलने में और बच्­चों को पि­चकारी और गुब्­बारे फेंक कर मारने में आता था। न उम्र देखी जाती न ओहदा, न जात-पांत। सब एक हो जाते थे। एक जैसे रंगों में रंगे और कोई साफ दि­खे तो उसे अपने जैसा बनाने में तत्­पर।  लोग डूबकर फाग गाते, झाल, ढोलक और मंजीरा बजाते हैं। अब वो दि­न वाकई गुम हो गए। होली में रंग खेलना पानी की बर्बादी लगता है तो गीले रंग से त्­वचा के खराब होने का डर सताता है।

 हालांकि­ यह बात सच है कि­ पहले लोग प्राकृति­क तरीके से होली खेलते थे। टेसू और अन्­य फूलों से रंग बनाते थे। गेंदा और टेसू को उबालकर, हल्­दी-बेसन, मेंहदी आदि­ से प्राकृति­क रंग बनाया जाता था। इससे त्­वचा को हानी नहीं पहुंचती थी। मगर यह ही कारण नहीं है कि­ होली मनाने वालों की कमी हो गई है। दरअसल हर कोई आत्­मकेंद्रि­त है और होली में जो मन मुताबि­क मस्­ती कि­या जाता है उसे आज का सभ्­य समाज फूहड़ता कहता है। वास्तव में यह फूहड़ता नहीं थी और न है।
 आप एक बार जी खोल कर चेहरे पर लगा भद्रजनों का नकाब हटाकर वही करिये जो आपका मन कहता हो....जनाब खुद को बदला हुआ पाएंगे। होली की मस्­ती की धमक दि­ल में ऐसी बसती है कि­ मरते दम नहीं भूलती।  तो इस बार होली है है है...........बचपन वाली होली।

28 फरवरी 2018 को 'इंडि‍यन पंच' के संपादकीय पृष्‍ठ में प्रकाशि‍त 

4 comments:

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन राष्ट्रीय विज्ञान दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

दिगम्बर नासवा said...

होली की पुरानी यादों में लौटा लिया आपकी पोस्ट ने ...
होली की बधाई हो ....

Sudha Devrani said...

बचपन की होली....
बहुत खूब।

शुभा said...

वाह!!बचपन की सुनहरी यादें ताजा हो गई ...बहुत सुंंदर सृऋसृजन ।