Wednesday, January 17, 2018

वक्‍त...


वक्‍त हि‍रण की तरह कुलांचे मार रहा है। कल बेहद बेहद ठंड थी। पि‍छले कई सप्‍ताह से बेतरह ठंढ़ है। आज धूप खि‍ली है...कल.....फि‍र कल......कि‍सी के रोके से कब रूका है वक्‍त.....फि‍तरत है.....ये जा..............वो जा।
अालमीरे की गर्द झाड़ी तो लगा वक्‍त का आईना साफ हो गया.....कई कि‍ताबें, अनखुली...बेपढ़ी..
मुस्‍कराती कथाओं ने मुंह चि‍ढ़ाया.....कहा उलझी रहो.....बतरस के मजे में मेरा सुख तो गवांयां न, खुली आंखों का ख्‍वाब..पूरा कौन करेगा ? 
कि सनद रहे.......एक दि‍न के घंटे 24 ही होते हैं....दो जि‍से देना है!
अब मुंह बनाए सोच रही हूं...क्‍या करूं......क्‍या न करूं...तुम भी जरूरी.....वो भी जरूरी और बाकी...दुनियादारी

तस्‍वीर- एक दुकान में सजी नकली मोति‍यों की माला..

4 comments:

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18-01-2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2852 में दिया जाएगा

धन्यवाद

रौशन जसवाल विक्षिप्त said...

शानदार

सुशील कुमार जोशी said...

कुछ जरूरी जरूरी है कुछ जरूरी मजबूरी है । बहुत सुन्दर।

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सड़क दुर्घटनाओं से सब रहें सुरक्षित : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...