जाने कहाँ गयी
वो
जो मेरे साथ रहती थी
नहीं देखा
बहुत दिनों से
नाज़ुक कोंपलों पर
ऊँगलियाँ फिराते
कबूतरों के झुंड को
धप्प से कूदकर डराते
रात को
तारों भरे आकाश में
नक्षत्रों को झूठ-मूठ दौड़ाते
वो
जो मेरे साथ रहती थी
नहीं देखा
बहुत दिनों से
नाज़ुक कोंपलों पर
ऊँगलियाँ फिराते
कबूतरों के झुंड को
धप्प से कूदकर डराते
रात को
तारों भरे आकाश में
नक्षत्रों को झूठ-मूठ दौड़ाते
जाने कहाँ गयी
वो
जो मेरे साथ रहती थी
हर मौसम, हर सुबह
हर शाम से प्यार था उसको
कभी बारिश को तरसती
कभी गरमियों से
क़दमताल करती
वो
जो मेरे साथ रहती थी
हर मौसम, हर सुबह
हर शाम से प्यार था उसको
कभी बारिश को तरसती
कभी गरमियों से
क़दमताल करती
और यह ठंड !
इसे तो बाहों में जकड़ती थी
हर बरस कहती
कुहासे भरी सुबह में
मुँह से भाप निकालते
ओ जाड़े के मौसम
तुम मुझे बहुत पसंद हो
इसे तो बाहों में जकड़ती थी
हर बरस कहती
कुहासे भरी सुबह में
मुँह से भाप निकालते
ओ जाड़े के मौसम
तुम मुझे बहुत पसंद हो
अब तो सब मौसम
एक सा लगता है
जाने कहाँ गयी
जो यह सब कहती थी
और मेरे साथ रहती थी ।
एक सा लगता है
जाने कहाँ गयी
जो यह सब कहती थी
और मेरे साथ रहती थी ।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २ फरवरी २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह!!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
बहुत सुन्दर रचना । उसे खोजना ही पडेगा । आपके भीतर ही कंही छुप तो नहीं गयी ।
ReplyDeleteप्यारी कविता ।
सादर
वाह!!बहुत खूब।
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