अब शाम का रंग बदलने लगा थ्ाा। सूरज के आसपास नारंगी रंग फैला था। एक के बाद एक पहाड़ दूर तक नजर आ रहे थे। लोगों का ध्यान सब तरफ से हटकर सूरज की ओर था। आसमान साफ था, सो हम आराम से देख पा रहे थे कि कैसे सूरज के आसपास लालिमा बढ़ती जा रही है और गहरे होते आसमान में सूरज कितना खूबसूरत लगने लगा।
धीरे-धीरे सूरज डूब गया। अब हल्का उजाला था। लोग वापस जाने लगे। पर अब हम वहां आराम से बैठे थे। चाय के साथ आलू की पकौड़ी बनावाई क्योंकि दुकान में प्याज खत्म हो गया था। आसपास एक दो घर थे। कुछ गांववाले बैठे थे। पर्यटक सारे जा चुके थे।
आसमान में चांद चमक रहा था। सखुआ के फूल चुनने लगे हमलोग। वादियां और मनमोहक लगने लगी। शांत वातावरण में ऐसा लगा जैसे कोई बासुंरी बजा रहा हो। जरूर वो चरवाहा मधुर बांसुरी बजाता होगा जिसके आकर्षण में बंधकर मैग्नोलिया को प्यार हो गया होगा उससे। अद्भुत है जगह..जहां एक प्रेम कहानी जिंदा है। वहां चरवाहे और मैग्नोलिया के प्रेम की तस्वीरें उकेरी हुई हैं। उस घोड़े की भी प्रतिमा है जिसके साथ वो लड़की कूद गई थी घाटियों में। अब हमें जाना था। एक प्रेम कहानी को मन में गुनते हुए वहां से वापस आए।
वन विभाग के रेस्ट हाउस में ठहरना था हमें। हम सब निकल पड़े। रास्ते में प्रसिद्ध नेतरहाट विद्यालय मिला। कुछ देर वहां रूककर देखा हमने। कैंपस के अंदर नहीं गए क्योंकि शाम ढल गई थी। नेतरहाट विद्यालय की स्थापना 15 नवंबर1954 में हुई थी। 24 जुलाई 1953 को इस विद्यालय की स्थापना का निर्णय लिया गया था। इसका श्रेय जाता है सर पियर्स को, जिनके प्रयास से एक ऐसे आवासीय विद्यालय की स्थापना हुई, जिसके छात्रों ने अनेकानेक क्षेत्रों में अपने नाम की कीर्ति फैलाई । भारतीय शिक्षा जगत में सर पियर्स का अतुलनीय योगदान है। जाति से अंग्रेज होने पर भी उन्होंने भारत को अपनी कर्मभूमि मान लिया था। नेतरहाट का चयन इसलिए किया गया क्योंकि ग्रामीण परिवेश और वहां की जलवायु उत्तम थी।
दरअसल इस तरह के आवासीय विद्यालय की मांग तत्कालीन बिहार के धनी वर्ग की थी, जो अपने बच्चों को सिंधिया, दून आदि दूर के स्कूलों में भेजने के बजाय पास ही कोई वैसा स्कूल चाहते थे, जिसमें वैसी सुविधाएं हों। विद्यालय में शिक्षा का माध्यम हिंदी है और नामांकन परीक्षा के आधार पर होता है। हालांकि अब पहले सी उज्जवल छवि नहीं, कई और स्कूलों का परीक्षाफल भी अच्छा होने लगा है पर एक वक्त था जब इसी विद्यालय का डंका बजता था।
इस सुरम्य स्थल को सामने लाने का श्रेय सर एडवर्ट गेट तत्कालीन लेफ्टिनेंट बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा को जाता है। उन्हें यहां की प्रकृतिक सुंदरता से प्रेम था। उन्होंने ही अपने आवास राजभवन शैले हाउस का निर्माण के साथ-साथ अन्य बुनियादी संरचनाएं भी स्थापित की। शैले लकड़ी की एक भव्य इमारत है। नेतरहाट विद्यालय के प्रथम सत्र के छात्र इसी इमारत में पढना शुरू किए थे।
अब हम अपने पड़ाव की ओर अग्रसर थे। वन विभाग के रेस्ट हाउस में जाकर आराम करना था। बहुत मोहक और खूबसूरत बना हुआ है रेस्ट हाउस। शाम की दूसरी चाय यहीं पी हमने और ढेर सारी बातें भी की। बच्चे बैडमिंटन खेलने में लग गए। कुछ देर बाद जब चांदनी रात में टहलने निकले तो चीड़ के दरख्त और यूकोलिप्टस की गगन छूते पेड़ देखकर हमें रोमांच हो आया। रातरानी की खूश्बू से परिसर महक रहा था।
मगर यहां नेटवर्क की समस्या थी। न रिलाइंस का फोन कार्य कर रहा था न जियो न वोडाफोन। बस ऐयरटेल का एक नंबर चालू था। दूसरी दिक्कत यह कि बहुत छोटी जगह है। खाने-पीने के सामान मिलने में भी परेशानी होती है। स्थानीय बाजार साप्ताहिक है, इसलिए सब्िजयों की भी आमद कम है। होटल भी कम ही हैं और ऐसे दुकान भी जहां से सामान लिया जा सके। हालांकि कुछ घर ऐसे नजर आए हमें जिसे देखकर लगा कि उनलाेगों ने अपने घर को गेस्ट हाउस में तब्दील कर दिया है। यह देखकर वाकई बहुत दुख होता है कि इतनी खूबसूरत जगह को सरकार तरीके से डेवलप करे तो कितने लोग आएंगे यहां। नेतरहाट को यूं ही 'छोटानागपुर की रानी' नहीं कहा जाता। वाकई बहुत खूबसूरत वादियां हैं मगर उपेक्षा की शिकार।
हमारा खाना यहीं रेस्ट हाउस में बना। कुछ लोग जगह की तलाश में आए वहां मगर बिना बुकिंग के संभव नहीं था ठहरना। खाने के बाद सबलोग एक बार फिर टहलने निकले। गर्मी कम थी। रांची का मौसम तो अब बहुत बदल गया है। बिना एसी के काम नहीं चलता। मगर बाहर तो ठंढी हवा थी और रात कमरे में एक पंखे से काम चल गया। हमें सूर्योदय के लिए सुबह उठना था मगर सोने को कोई तैयार ही नहीं था। मुश्किल से दो-तीन घंटे की नींद ले पाए। सुबह चार बजे सारे लाेग उठकर तैयार।
सूर्योदय के लिए पता लगा कि राज्य पर्यटन विभाग का होटल है प्रभात विहार होटल, वहीं जाना होगा। हम सब तुरंत वहां के लिए निकले। पहंचे तो पता लगा कि होटल और आसपास बन रहे बिल्ड़िग के ऊपर चढ़कर लोग देखते हैं सूरज का निकलना। हमें लगा इससे कही बेहतर है अपने रेस्ट हाउस के उस प्वाइंट से देखना जो खास इसके लिए बनाया गया है। वहां के कर्मचारी ने कहा भी था कि यहां से बहुत अच्छा दिखता है, आप देख सकते हैं।
अब वापस रेस्ट हाउस। उजाला फैलना शुरू ही हुआ था। सूरज निकलने में देर थी। बच्चे आनंद लेने लगे। सामने घना जंगल। परतों में पहाड़ दिख रहा था। आसपास चीड़ के पेड़ थे। गुलमोहर के फूल जमीन पर गिरे थे। बच्चे चीड़ के फल जमा करने लगे तो कभी ट्री हाउस पर चढ़कर सूरज को आवाज लगाने लगे। पूरब की तरफ पहाड़ों के ऊपर, चीड़ की पत्तियों के पीछे से सूरज निकलने लगा। हल्की धूंध के पीछे से निकलता सूरज सबको रोमांचित कर रहा था। वैसे भी शहराें में लोग कहां देख पाते हैं सूर्योदय। सूरज की पहली किरण का स्पर्श कितना सुखकर हो सकता है..यह देर से बिस्तर छोड़ने वालों को क्या पता।
कुछ देर बात सूर्य की रश्मियां फैल गईं सब ओर। हम भी बिखर गए अपने अपने पसंद की जगह देखने के लिए। फोटोग्राफी के लिए सबसे अच्छा समय होता है।
मैं कैमरा थामे निकल गई वहीं। देखा दूर जंगल में लोग पानी की बोतल थामे चले जा रहे है। अब लोटे का रिवाज खत्म हुआ न.....सरकार का नारा अभी हर जगह स्वीकार्य नहीं। शायद वो सोच नहीं सो शौचालय भी नहीं। अब नजरें घुमाकर देखा। फूलों का रंग और चटख था। यूकोलिप्टस के सफेद , चिकने तने और गगनचुंबी डालियों ने हैरत में डाला हमें। बेगनबोलिया की सफेद, गुलाबी फूल मन मोह रहे थे तो तरह-तरह के फूलों से जमीन पटी हुई थी। पेड़ से गिरे भूरे पत्ते और पेड़ों पर लगे हरे पत्ते मिलकर अद्भुत दृश्य बना रहे थे। हमने खूब तस्वीरें ली।
अब सूरज की गर्मी महसूस होने लगी। हमें वापस जाना था आज ही क्योंकि अचानक प्लान बना कर आए थे। गर्मी देखकर ये लगा कि दिन में कहीं घूमना संभव नहीं होगा। इसलिए बेहतर है एक बार और घूमने के लिए जाड़ों में आए जाए। यहां आसपास कई फॉल है। ऊपरी घाघरा झरना नेतरहाट से चार किलोमीटर की दूरी पर है और निचली घाघरा झरना 10 किलोमीटर की दूरी पर। हालांकि पता चला कि गर्मी के कारण पानी कम है अभी इसलिए जाने का कोई फायदा नहीं।
हमारा मन लोध झरना जाने का जरूर था। इसे झारखंड का सबसे ऊंचा झरना माना जाता है। कहते हैं कि झरने के गिरने की आवाज आस-पास 10 किलोमीटर तक सुनाई पड़ता है। यह नेतरहाट से 60 किलोमीटर की दूरी पर बुरहा नदी के पास है। मगर सभी लोग जाने के लिए तैयार नहीं हुए। सुबह के चार बजे उठने की आदत नहीं किसी की सो सब अलसाए लगे। हमने तय किया कि कुछ दिनों बाद फिर आएंगे यहां।
अब हमने सामान समेटा और निकल गए। थोड़ी दूर पर नाशपती का बगान मिला। फल लदे थे मगर कच्चे थे अभी। अब वापसी में वही सब नजारा। घने दरख्त, कोईनार या कचनार के पेड़..चीड़ के ऊंचे पेड़ और बांस के घने जंगल से आती सरसराहट की आवाज। रास्ते में नदी मिली जिसका पानी कम था।
हां, इस वक्त आम के पेड़ के नीचे बच्चे कम थ मगर सड़कों पर लकड़ी ले जाते कई लोग मिले। खासकर औरतें। सड़क पर जगह-जगह कुछ सूखने के लिए डाला हुआ था। देखा..ये कटहट के बीज थे। जब कटहल पक जाते हैं तो उनके बीज निकालकर सब्जी बनाई जाती है।
मैंने अक्सर देखा है गांव में पक्की सड़क पर कभी धान सूखने डाला होता है तो कभी महुआ। आज कटहल के बीज देखे वो भी बहुत सारे। धूप सर पर थी। सड़कों में सन्नाटा। बच्चे सो गए थे सारे। हमें भी नींद आ रही थी। लगभग चार घंटे का सफ़र था और उसके बाद हम अपने घर में। जल्दी ही दोबारा आने के वादे के साथ।
बेहद शानदार जगह रश्मि जी बढ़िया तरह से शब्दों में पिरोया आपने।
ReplyDeleteवाह ! सूर्यास्त से सूर्योदय तक का अनुपम वर्णन !
ReplyDeleteनेतरहाट नाम खूब सुना था । आज आपके माध्यम से जान भी गये ।
डूबती शाम की खूबसूरती को बाखूबी कैद किया है ... गज़ब फोटो ...
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा आपने। पढ कर आनंद आया
ReplyDeleteबहुत बढ़िया |
ReplyDeleteकभी मेरे ब्लॉग पर भी आना दी
सजीव विवरण। पढ़कर लगा जैसे हम भी घूम आये हों।
ReplyDeleteअति सुन्दर वर्णन । कृपया यदि कुछ विस्तार से जानकारी दी जाए तो सोने पे सुहागा वाली कहावत चरितार्थ होती । लड़की के पिता का नाम , चरवाहे का नाम । और किस विभाग का वह अंग्रेज अफसर था ।
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