Friday, May 12, 2017

सरकारी कक्ष के बाहर


“डॉ.रागिनी नागपाल , प्रखंड अधिकारी गिरडीह” बरसात के इस मौसम में  लाल  पत्थर से बने  सरकारी कक्ष के बाहर पीतल की यह नाम पट्टिका मानो उसके भीतर बैठी अधिकारी के रुआब को रेखांकित कर रही हो,  परन्तु भीतर बैठी रागिनी अनेकों अनचाहे कामों से उद्ग्विन सी अपना सर हाथों से थामे , किसी फाइल के बेहद उबाऊ सफों और बरसों पुरानी टाइप की अस्पष्ट सी तहरीर में दुबकी हुई थी। 

रागिनी , हिंदी साहित्य की मेधावी विधार्थी रही है पोस्ट–डॉक्टरल फेलो भी और अपने पिता की इच्छा को देखते हुए कॉलेज लेक्चरर का जॉब छोड़कर नौकरशाही की इस बोरियत भरी कतार में लगी है।  पति रितेश काम के सिलसिले में अक्सर दुबई रहता है सो दफ्तर , घरपरिवार  और समाज के काँटों से चलने वाली वक़्त की घडी में झूल रही है।  ऐसे में लिखने –पढने की सोचना भी सपना सा लगता है उसे, ऊपर से पोस्ट उस की ऐसी,  कि जिले का कोई भी काम उसे दिया जा सकता है राजस्व से लेकर चुनाव और राशन कार्ड से लेकर आधार कार्ड तक। हर बार सरकार बदलने पर नई योजनाओं को पढने समझने में ही इतना वक़्त निकला जाता है कि कई योजनाओं का क्रियान्वन होने के पहले ही सरकार बदल जाती है, साथ ही बढ़ जाती है रागिनी की मुसीबतें। ऐसे में रामबरन काका , जो यहाँ दफ्तरी हैं और लम्बे वक़्त से इन सबसे दो-चार होते रहें हैं,  रागिनी की मुश्किलों को आसान बनाने में सहायक होते हैंं।  पूरे प्रखंड में एक वही कार्मिक है जो रागिनी से अनौपचारिक है और अकेले में उसे बिटिया साहेब बुलाता है। 

“चाय लेंगी बिटिया साहेब” रामबरन काका की आत्मीय आवाज़ ने  उसकी तन्द्रा भंग की, “आज जी ठीक नहीं आपका, न हो तो क्वार्टर जा कर आराम कर लीजिये”
“हाँ काका ,सोचती हूँ चली ही जाऊं कोई जरुरी फाइल हो तो आप ले आइयेगा’ ऑफिस के पीछे ही सरकारी निवास है उसका। 
“आपके पोते के एडमिशन का क्या हुआ काका’ ? आपने बताया नहीं...
चाय पीते हुए उसे अचानक ध्यान आया,  पिछले दिनों रामबरन काका ने पोते के एडमिशन के लिए कहा था उसे और उसने फोन भी कर दिया था।  यहाँ के सबसे माने हुए स्कूल लॉर्ड्स इंटरनेशनल को, इकोनोमिकल वीकर सेक्शन के कोटा में उसके एडमिशन को लेकर ,पर काका ने कुछ बताया नहीं बाद में।
“जी , नहीं हुआ.. मैं कई बार गया,  बेटे को भेजा पर हर बार कोई न कोई बहाना कर के टाल देते हैं स्कूल  वाले, मना भी नहीं करते’ आप पिछले दिनों बहुत व्यस्त रही सो आपसे नहीं कहा” काका की आँखों में नैराश्य भर आया बोलते हुए।
रागिनी के  भीतर बैठे ब्यूरोक्रैट को जैसे सीधी चुनौती थी ये“सक्सेना जी को बुलाइए” काका को कहा उसनेे। सक्सेना जी यानी पी.एस. आते ही अभिवादन कर के सामने कुर्सी पर बैठ गये।
“सक्सेना जी,  लॉर्ड्स स्कूल को एक नोटिस इशू कीजिये इ.डब्ल्यू.एस. कोटा के एडमिशन की सभी फाइल्स लेकर कल 11 बजे मुझसे मिलें । आज की आज ये नोटिस तामील करवाइए,  फोन भी कीजिये उनको”.

"जी मैडम , नोटिस की एक कॉपी जिला  शिक्षा अधिकारी को भी मेल कर  देता हूँ" सक्सेना जी कहते हुए उठ गए कुर्सी से । रागि‍नी ने अपना मोबाइल निकाल कर उसने स्थानीय परिवहन अधिकारी  विजयवीर को फोन किया , जो रागिनी का बैचमेट था। 
“हलो रागिनी कहाँ हो भई,  बहुत दिनों से बस अखबार में ही दिख रही हो प्रत्यक्ष नहीं’ अपने फोन में रागिनी की कॉल देखते ही विजय बोल उठा। 
“बस ऐसे ही , मिल के बात करेंगे। तुम सुनाओ”
“ अच्छा बोलो कैसे फोन किया किसकी आफत आई आज “ हंस रहा था विजय।
‘सुनो , लॉर्ड्स स्कूल की ऐसी बसें जो बाल वाहिनी के नाम से परमिटेड हैं और दूसरे कामों  में लगी हैं इन में से दो तीन को जब्त कर लो आज ही’.  
ओके बॉस, जो हुक्म। ये सुनकर रख दिया फोन रागिनी ने। काका  ये सब  देख सुन रहे थे।
‘मैं चलती हूँ , परसों स्कूल जा कर फीस जमा करवा देना बच्चे की.” हाथ जोड़ कर खड़े कृतज्ञ काका के मुंंह से कोई बोल नहीं फूटा। 
रागिनी अपने निवास जा कर थोडा सो लेने की तैयारी करने लगी।  मगर आधा घंटा भी नहीं हुआ कि उसका लैंडलाइन फोन बजने लगा जिस पर मात्र ऑफिस के ही फोन आते है.
“बिटिया साहेब, कोई औरत आई है आपसे मिलना चाहती है असहाय पेंशन योजना के तहत उसका फॉर्म रिजेक्ट हुआ है।  मैंने कल आने को बोला तो कहती है कि बहुत चक्कर लगा चुकी हूँ अब हिम्मत नहीं। कहती है कि आपको जानती भी है।  बोल रही है कि मैडम से पूछो, ना हो तो क्वार्टर पर  चली जाऊं उनके” एक सांस में बोल उठे काका।
“नहीं बिठा लो उनको पानी वानी  पूछ लो मैं आती हूँ , उस की फाइल और आवेदन मेरी टेबल पर रख दीजिये “ चल पड़ी वो ऑफिस। जाने कौन परिचित है , सोचती सी। 
     
रागिनी ने दूर से देखा उसको...चेहरे मोहरे से आयु अधिक नहीं लग रही थी मगर जैसे बरसों की भुखमरी , मुफलिसी और बीमारी से बेहद कृशकाय नज़र आ रही थीं , दोनों जुड़े हुए हाथों के पीछे का चेहरा दयनीय भी दिखाई दे रहा था। .रागिनी  की नजरें काका  को ढूंढ रही थीकि‍ वापस उस चेहरे पर अटक गई।
तकरीबन बीस -पच्चीस बरसों  बाद उन्‍हें देखा था  आंखे मि‍लींपहचान के चि‍न्ह उभरे और फीकी सी मुस्‍कराहटों का आदान-प्रदान हुआ। उनको अपने सामने वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया रागिनी ने और सामने रखी फाइल को देखते हुए कई वर्षों पीछे चली गई थी.रागिनी ....अपने बचपन में।

सावन-भादों का महीना था। घटाएं घूम-घूम कर छा जाती और खूब बारि‍श होती....लगातार। चारों तरफ कीचड़...पानी।
इसी मौसम में एक फल होता था पेड़ पर....पीलापन लि‍ए हरा-हरा...खूब खट्टा। आंंवले की प्रजाति‍ का ही फलगुच्‍छे में फलता,जि‍से  'हरफरौरीया “चिल्लीमिल्ली” कहते थे। उस केे स्कूल के बच्‍चों को खूब पसंद था। पर मुश्‍कि‍ल ये थी कि‍ पूरे गांव में एक ही घर में इसका पेड़ था। उस घर की दो लड़कि‍यां रागिनी के स्‍कूल में पढ़ती थीं। एक दीदी थी,  छ कक्षा आगे और छोटी वाली उसी के साथ की। सारी सहेलि‍यां चि‍रौरी करती..हमारे लि‍ए तोड़कर ला देना। वो लाकर भी देती। पर कच्‍चे वाले फल औरों को  बांटतीजो जरा कसैले होते थे और पके एवं रस वाले फल खुद खातीं।

छोटी सी रागिनी का बड़ा मन करता कि‍ काश..वह  भी बड़े-बड़े रसदार हरफरौरी खा पाती । क्‍लास के कुछ लड़के थे जो उस  की इस कमजोरी को जानते थे। रागिनी और उसकी सहेलियाँ घर से नमक-मि‍र्ची लेकर छुपाकर ले जाती स्‍कूल के बस्‍ते में। लड़के जब बारि‍श होती तो लंच ब्रेक में साईकिल उठाकर उसके घर चले जाते और दोपहर के सन्‍नाटे का फायदा उठाकर तोड़ लाते। फि‍र सब मि‍लकर खाते।

ऐसे ही एक दि‍न की बात है। हरफरौरी के पेड़ पर गदराए फल गुच्‍छों में लदे थेखट्टे फल खाने को सभी बच्चे खूब  ललचते। एक दि‍न खूब बारि‍श हुई...रूकने का नाम न ले। स्‍कूल छुट्टी के बाद भी घर जाना मुमकि‍न नहीं। जो बच्‍चे छतरी या रेनकोट नहीं नहीं लेकर आए थे वो मुश्‍कि‍ल में थे कि‍ कैसे जाएं। तभी , आज सामने बैठी इसी महिला ने जिसे रागिनी तब  दीदी कहा करती थी और जो नवींं कक्षा में पढ़ती थी, उसे  इशारे से बुलाया,  बुलाकर कहा..."मैंंने आज हरफरौरी सुबह ही तोड़कर रखा है। बड़े साईज वाले। तुम खाओगी "
अब ना कौन कहता सो तुरंत हामी भर दी थी अबोध रागिनी ने ।

दीदी ने कहा..."जाओ..घर से छाता लेकर आओ। मेरे साथ चलो...मैं दूंगी"।  घर पास ही था। वो  भीगते हुए गई और उनके लि‍ए घर से छतरी लेकर आई। दोनों  साथ चल पड़े। रागिनी ने  खुद को जरा भीगने दि‍या पर उन्‍हें कुछ नहीं कहा। वो बच-बच के चल रही थी क्‍योंकि‍ लंबी होने के कारण छतरी उनके ही हाथ में थी।  घर में भी उस ने कि‍सी को नहीं बतायाक्‍योंकि‍ उनका घर दूर थाऔर उसे  सड़क पार कर अकेले जाने की इजाजत नहीं थी। फि‍र भी  फल के लालच में उनका ऑफर  स्‍वीकार कि‍या था रागिनी ने ।

रागि‍नी और दीदी  घर के पास पहुंचे। वो दरवाजे के पास जाकर रूकी। अजीब तरह से हंसीपेड़ की तरफ इशारा कर उस से कहा.... "जाओ..जमीन में गि‍रे पड़े हैं फल....चुन लो जि‍तना चुनना है तुम्हारी यही जगह है  , मांग मांग कर फल खाने वालों की" ।
 
दर्ज़ा तीन में पढने वाली , जरा सी रागिनी  हतप्रभ...ठगी सी उनका मुंह देखती रही। प्रति‍वाद में एक शब्‍द नहीं नि‍कला मुंह से।

शायद अभि‍मानवश एक फल नहीं उठाया और आंख में आंसू भरे घर आ गई। 

अपमान की यह  बात उस ने  आज  तक कि‍सी को नहीं बताई। चालाकीछल ये सब बातें बचपन में समझ नहीं आती। पर घोर आश्‍चर्य , आज जैसे ही रागिनी ने  उन्‍हें देखाउसकी आंखों के आगे सारा दृश्‍य तैर उठा।  हां..कि‍सी फि‍ल्‍म की तरह फ्लैश-बैक चलता रहा...उस पांच मि‍नट के दरमि‍यां अजीब से विद्रूप से भर  उठा मन। उस का  जी कर रहा था कि अपरिचय जताओ और आवेदन रखकर उन्हें जाने को बोल दिया जाए। 
बचपन की कोई बात इतना लम्बा समय गुजरने के बाद भी आज इतनी भी चुभ सकती है दि‍ल को...पहली  बार रागिनी ने ये जाना ये। 

विचारों के इसी क्रम के दौरान  रागिनी की तेज़ निगाहें उनकी फाइल के पन्नों को भी जैसे साथ के साथ स्कैन करती जा रही थीं , जिसमें उनके शादी के तुरंत बाद विधवा होने का प्रकरण , घर वालों द्वारा परित्याग और वृन्दावन जाकर विधवाश्रम में वास के साथ चिकित्सक द्वारा जारी लम्बी बीमारी का प्रमाण -पत्र , आर्थिक मदद का प्रार्थना पत्र और असहाय-वृदावस्था पेंशन योजना में नामित नहीं किये जाने संबंधी सरकारी आपत्ति , जैसे एक निगाह में सब समझ गयी वो।    
फाइल से सर उठा कर नम आँखों से ,अनमयस्क सी रागिनी ने सामने देखा ..दीदी की वृद्ध  धुंधली सी आँखों से टप-टप आंसू झर रहे है और  खिड़की के बाहर भी लगातार बारिश की बूँदें पड रही हैं, उसी दि‍न की तरह। 

तस्‍वीर-साभार गूगल 

2 comments:

  1. बधाई हो रश्मि जी इस बेहतरीन लेखनी के लिए,,,

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  2. बहुत ही अच्छा लिखती हैं आप ! कहानी ने अंत तक बाँधकर रखा । अपने बचपन का समय याद आ गया ।

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