Wednesday, March 1, 2017

सि‍जलि‍ंग ट्री


फि‍र तुमने याद दि‍ला दि‍या वो वक्‍त। पहाड़ से साए में बसा घर जहां धूप और बारि‍श के मेले में चटखती थी बंद कलि‍यां। हवा का हमसे याराना देख पत्‍ति‍यां कसमसा उठती थी दामन को छूकर फना होने को ।

पहाड़ों की अाग को आंखों में भरा था ....बादलों के आगोश में आस्‍मां तक सीढ़ी लगाने की ख्‍वाहि‍श को पीपल के पत्‍ते ने हवा दी थी।

पीछे पहाड़ पर खि‍ला करते थे शि‍रीष के सफ़ेद-पीले फूल और पुटूस के रंगों से फूलों की घाटी सी लगती थी वो वादि‍यां। शाम उतरती थी नारंगी रंग लि‍ए और दोपहर का एकांत पीपल-शि‍रीष के तले सरसराहट से भर उठता था। पीपल के बीजों की 'चकरी' और मंदि‍र का एकांत।

तुम्‍हें बहुत पसंद है न मेरा गांव। उस नीरव एकांत में एकटक तकते रहना कि‍तना पसंदीदा काम का तुम्‍हारा। पहाड़...पेड़ और एक चेहरा।
 उस दि‍न जेठ की दुपहरी सी ही तो थी दोपहर जब नीले गुलमोहर को मेरी ही गली से समेटकर हाथों में भरे अचानक से चौंका गए थे मेरे ऊपर फेंककर।

डर से कांपना मेरा और  शि‍रीष की सूखी फलि‍यों की खड़खड़ाहट एक सी लगी तुमको..... ''सि‍जलि‍ंग ट्री''...बोलो कौन.....

मैं...ना..ना....वो लाल फूलों वाला शि‍रीष। मेरी फ्रॉक भी तो लाल ही थी।

अच्‍छा लगा कि‍ तुम्‍हें याद है अब भी सब.... पीपल की चकरी नहीं चुनती अब मैं...दोपहर बोलती है कानों में आकर.....सि‍जलि‍ंग ट्री.....सि‍जलि‍ंग ट्री।

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